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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका १०७-११० येनाशेषजगत्यस्य सर्वज्ञस्य निषेधनम् । परोपगमतस्तस्य निषेधे स्वेष्टबाधनम् ॥१०७॥ मिथ्यैकान्तनिषेधस्तु युक्तोऽनेकान्तसिद्धितः । नासर्वज्ञजगत्सिद्धेः सर्वज्ञप्रतिषेधनम् ॥१०॥ एवं सिद्धः सुनिर्णीतासम्भवबाधकत्वतः । सुखवद्विश्वतत्त्वज्ञः सोऽर्हन्नेव भवानिह ॥१०९॥ स कर्मभूभृतां भेत्ता तद्विपक्षप्रकर्षतः । यथा शीतस्य भत्तेह कश्चिदुष्णप्रकर्षतः ॥११०॥
'जिससे सम्पूर्ण संसारमें प्रस्तुत सर्वज्ञका अभाव किया जाय । यदि कहा जाय कि सर्वज्ञवादी सर्वज्ञको स्वीकार करते हैं अतः उनके स्वीकारसे हम सर्वज्ञका अभाव करते हैं तो इसमें आपके इष्टकी बाधा आती है।'
"मिथ्या एकान्तोंका अभाव तो अनेकान्तकी सिद्धिसे युक्त है । तात्पर्य यह कि यद्यपि हम ( जैन ) सर्वथा एकान्तोंका निषेध करते हैं पर वह दूसरोंके स्वीकारसे नहीं करते हैं। किन्तु वस्तु अनेकान्तरूप सिद्ध होनेसे सर्वथा एकान्त निषिद्ध हो जाते हैं और इसलिये उनको स्वीकार न करनेपर भी उनका अभाव बन जाता है। लेकिन सर्वज्ञाभाववादी असर्वज्ञ जगतकी सिद्धि बतलाकर सर्वज्ञका निषेध नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे यह नहीं कह सकते कि 'चूंकि जगत असर्वज्ञ सिद्ध है, इसलिये सर्वज्ञ निषिद्ध हो जाता है क्योंकि असर्वज्ञ जगत अर्थात् जगतमें कहीं भी सर्वज्ञ नहीं है यह बात किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है । पर वस्तु सभी प्रमाणों-- से अनेकान्तात्मक सिद्ध है।'
_ 'इस प्रकार बाधकप्रमाणोंका अभाव अच्छी तरह निश्चित होनेसे सुखकी तरह विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता-सर्वज्ञ सिद्ध होता है और वह सर्वज्ञ इस समस्त लोकमें हे जिनेन्द्र ! आप अर्हन्त ही हैं।'
'और जो सर्वज्ञ है वही कर्मपर्वत्तोंका भेदन करनेवाला है, क्योकि उसके कर्मपर्वतोंके विपक्षियोंका प्रकर्ष पाया जाता है, जैसे कोई उष्णके प्रकर्षसे ठण्डका भेदक है।'
1. व 'साधनम्।
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