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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९६ पद्यमानं दृष्टम्, यथा परिमाणमापरमाणोः प्रकृष्यमाणं नभसि, प्रकृष्यमाणं च ज्ञानम्, तस्मात्क्वचित्परां' काष्ठा प्रतिपद्यत इति, तदपि प्रत्याख्यातम्, ज्ञानं हि मित्वेनोपादीयमानं प्रत्यक्षज्ञानं शास्त्रार्थज्ञानमनुमानादिज्ञानं वा भवेत्, गत्यन्तराभावात् । तत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रतिप्राणिविशेष प्रकृष्यमाणमपि स्वविषयानतिक्रमेणैव परां काष्ठां प्रतिपद्यते गृद्धवराहादीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञानवत्, न पुनरतीन्द्रियार्थविषयत्वेनेति प्रतिपादनात् । शास्त्रार्थज्ञानमपि व्याकरणादिविषयं प्रकृष्यमाणं परां काष्ठामुपव्रजन्न शास्त्रान्तर[पर्थ विषयतया धर्मादिसाक्षात्कारितया वा तामास्तिघ्नुते । तथाऽनुमानादिज्ञानमपि प्रकृष्यमाणमनुमेयादिविषयतया परां काष्ठामास्कन्देत् न पुनस्तद्विषयसाक्षात्कारितया।
२६५. एतेन ज्ञानसामान्यं मि क्वचित्परमप्रकर्षमिर्यात, प्रकृष्यजो बढ़नेवाला होता है वह वह चरमसीमाको प्राप्त देखा गया है, जैसे परिमाण परमाणुसे लेकर बढ़ता हुआ आकाशमें चरमसीमाको प्राप्त है और बढ़नेवाला ज्ञान है, इस कारण वह किसी आत्मविशेषमें चरमसीमाको प्राप्त होता है' वह भी निराकृत हो जाता है। हम पूछते हैं कि यहाँ जो ज्ञानका धर्मी बनाया है वह प्रत्यक्षज्ञान है या शास्त्रार्थज्ञान अथवा अनुमानादिज्ञान ? अन्य विकल्प सम्भव नहीं है। यदि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञान धर्मी है तो वह प्रत्येक जीवविशेषमें बढ़ता हुआ भी अपने विषयका उल्लंघन न करके ही चरमसीमाको प्राप्त होता है, न कि अतीन्द्रिय अर्थको विषय करनेरूपसे, जैसे गृद्ध , सुअर आदिका इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञान । और यदि शास्त्रार्थज्ञान धर्मी है तो वह भी, जो कि व्याकरणादिविषयक है, बढ़ता हआ अपने व्याकरणादिविषयमें ही चरमसीमाको प्राप्त होता है, दूसरे शास्त्रके अर्थको विषय करने अथवा धर्मादिको साक्षात्कार करनेरूपसे वह उक्त सीमाको उल्लंघन नहीं करता। तथा अनुमानादि ज्ञान भी प्रकर्षको प्राप्त होता हुआ अनुमेय आदिको विषय करनेरूपसे उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त होता है, धर्मादिक अतीन्द्रिय अर्थोंको साक्षात्कार करनेरूपसे नहीं। $ २६५. इसी कथनसे 'ज्ञानसामान्य (धर्मी ) कहीं परमप्रकर्षको
1. द 'तस्मात्परां'। 2. द 'शास्त्रज्ञान'। 3. द 'प्रतिपद्यत्' । 4. द 'स्कन्दन्' ।
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