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कारिका ८७, ८८]
अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
सोऽर्हन्नेव मुनीन्द्राणां वन्द्यः समवतिष्ठते । तत्सद्भावे प्रमाणस्य निर्बाध्यस्य विनिश्चयात् ॥ ८७॥ $ २४५ किं पुनस्तत्प्रमाणमित्याहततोऽन्तरिततत्त्वानि प्रत्यक्षाण्यर्हतोऽञ्जसा । प्रमेयत्वाद्यथाऽस्मादृक् प्रत्यक्षार्थाः सुनिश्चिताः ॥८८॥ $ २४६. कानि पुनरन्तरिततत्त्वानि ? देशाद्यन्तरिततत्त्वानां सत्त्वे प्रमाणाभावात् । न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षं तत्र प्रमाणम्, देशकालस्वभावाव्यवहितवस्तुविषयत्वात् । " सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां यद्बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् " [ मीमांसाद० १-१-४] इति वचनात् । नाप्यनुमानं तत्र प्रमाणम्, तदविनाभाविनो लिङ्गस्याभावात् । नाप्यागमस्तदस्तित्वे प्रमाणम्, तस्यापौरुषेयस्य स्वरूपे एव प्रामाण्यसम्भवात्' । पौरुषेय
[ अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि ]
'वह अर्हन्त ही हैं और इसलिये वही मुनीश्वरोंके वन्दनीय प्रसिद्ध होते हैं, क्योंकि अर्हन्तके सद्भाव में निर्वाध प्रमाणका विशिष्ट निश्चय है - अर्थात् उनके सद्भावमें अबाधित और निश्चय प्रमाण हैं ।'
$ २४५. वह कौन-सा प्रमाण है ? इस प्रश्नका आगे कारिकाद्वारा उत्तर देते हैं
'वह प्रमाण अनुमान प्रमाण है वह इस प्रकार है—चूँकि ईश्वरादिक सर्वज्ञ नहीं हैं इसलिये अन्तरित पदार्थ अर्हन्तके परमार्थतः प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि प्रमेय हैं। जैसे हमारे सुनिश्चित प्रत्यक्ष पदार्थ । अर्थात् जिस प्रकार हमें अपने प्रत्यक्ष पदार्थोंका निश्चितरूपसे प्रत्यक्ष ज्ञान है उसी प्रकार अर्हन्तको भी अन्तरित पदार्थों का निश्चितरूपसे प्रत्यक्षज्ञान है ।'
९ २४६. शंका - वे अन्तरित पदार्थ कौन हैं ? क्योंकि देशादिसे अन्तरित पदार्थोंके सद्भावमें कोई प्रमाण नहीं हैं । प्रकट है कि हम लोगोंका प्रत्यक्ष तो उसमें प्रमाण नहीं है; क्योंकि वह देश, काल और स्वभावसे व्यवधानरहित वस्तुको विषय करता है । जैसा कि कहा है- "आत्माका इन्द्रियों के साथ समीचीन सम्बन्ध होनेपर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है ।" [ मी० द० १|१|४ ] | अनुमान भी उसमें प्रमाण नहीं है, क्योंकि उनका अविनाभावी लिङ्ग नहीं है । आगम भी उनके सद्भावमें प्रमाण नहीं है, क्योंकि जो अपौरुषेय आगम है वह स्वरूपविषयमें ही 1. व 'स्वरूपे प्रामाण्याभावात्', म 'स्वरूपे प्रामाण्यासम्भवात्' ।
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