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कारिका ८६ ]
परमपुरुष परीक्षा
व्यभिचाराद्भ्रान्तत्वसिद्धेः । न च सर्वस्य बोध्यस्य स्वयं प्रकाशमानत्वं ' सिद्धम्, स्वयं प्रकाशमानबोधविषयतया तस्य तथोपचारात् स्वयं प्रकाशमानांशु मालिप्रभाभारविषयभूतानां लोकानां प्रकाशमानतोपचारवत् । ततो यथा लोकानां प्रकाश्यानामभावे न तानंशुमाली ज्वलयितुमलं तथा बोध्यानां नीलसुखादीनामभावे न बोधमयप्रकाशविशदोऽन्तर्यामी तान् प्रकाशयितुमीशः इति प्रतिपत्तव्यम् । तथा चान्तःप्रकाशमानानन्तपर्यायैकपुरुषद्रव्यवत् बहिः प्रकाश्यानन्तपर्यायैकाचेतनद्रव्यमपि प्रतिज्ञातव्यमिति चेतनाचेतनद्रव्यद्वै तसिद्धिः । न पुरुषाद्वै तसिद्धिः, संवेदनाद्वैतसिद्धिवत् । चेतनद्रव्यस्य च सामान्यादेशादेकत्वेऽपि विशेषादनेक
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प्रकट है कि संशयज्ञान, स्वप्नादिज्ञान भो ज्ञेयसामान्यके व्यभिचारी ( उसके बिना होनेवाले) नहीं हैं, ज्ञ ेयविशेषों में ही उनका व्यभिचार होनेसे वे भ्रान्त ( अप्रमाण ) कहे जाते हैं । तात्पर्य यह कि चाहे यथार्थ ज्ञान हो, या चाहे अयथार्थ, सब हो ज्ञान ज्ञ ेयको लेकर हा होते हैं-ज्ञ ेयके बिना कोई भी ज्ञान नहीं होता । अतः सिद्ध है कि स्वप्नादिज्ञान भी ज्ञ ेयके. अविनाभावी हैं ।
दूसरे, समस्त ज्ञ ेय स्वयं प्रकाशमान सिद्ध नहीं हैं, स्वयं प्रकाशमान ज्ञानके विषय होने से हो उन्हें उपचारसे प्रकाशमान कह दिया जाता है । जैसे स्वयं प्रकाशमान सूर्यके प्रकाशपुञ्जसे प्रकाशित लोकोंको उपचारसे प्रकाशमान कहा जाता है । अर्थात् सूर्यके प्रकाशमानताधर्मका लोकों में उपचार किया जाता है । अतः जिस प्रकार प्रकाशन के योग्य लोकों ( पदार्थों ) के अभाव में सूर्य उनको प्रकाशित नहीं कर सकता है उसी प्रकार बोध्यों - जाने जानेवाले नोलसुखादि ज्ञ ेय पदार्थोंके अभाव में बोधस्वरूप प्रकाशमे निर्मल एवं सर्वज्ञ परमपुरुष उनको प्रकाशित करनेमें समर्थ नहीं हैं, यह समझना चाहिये । और इसलिये भोतरी, प्रकाशमान : अनन्त पर्यायवाले एक पुरुषद्रव्यको तरह बाहिरी प्रकाशित होनेवाला अनन्तपर्यायविशिष्ट एक अचेतन द्रव्य भी स्वीकार करना चाहिये, और इस तरह चेतन तथा अचेतन दो द्रव्योंकी सिद्धि प्राप्त होती है, केवल अद्वैत पुरुष सिद्ध नहीं होता, जैसे संवेदनाद्वैत सिद्ध नहीं होता । तथा चेत नद्रव्य सामान्यकी अपेक्षासे एक होनेपर भी वह विशेषकी अपेक्षासे : 1. मुस 'प्रकाशमात्रं ' ।
2. व 'चारात्' । 3. व 'द्धेः' ।
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