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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ८६ $ २२६. येऽप्याहुः-प्रतिभासमानस्यापि वस्तुनः प्रतिभासाद्भदप्रसिद्धर्न प्रतिभासान्तःप्रविष्टत्वम् । प्रतिभासो हि ज्ञानं स्वयं न प्रतिभासते, स्वात्मनि क्रियाविरोधात्, तस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वसिद्धेः। नापि तद्विषयभूतं वस्तु स्वयं प्रतिभासमानम, तस्य ज्ञेयत्वात् ज्ञानेनैव प्रतिभासत्वसिद्धेरिति स्वयं प्रतिभासमानत्वं साधनमसिद्धं न कस्यचित्प्रतिभासान्तःप्रविष्टत्वं साधयेत् । परतः प्रतिभासमानत्वं तु विरुद्धम्, प्रतिभासबहिर्भावसाधनत्वादिति ।
$ २२७. तेऽपि स्वदर्शनपक्षपातिन एव; ज्ञानस्य स्वयमप्रतिभासने ज्ञानान्तरादपि प्रतिभासनविरोधात्, 'प्रतिभासते' इति प्रतिभासैकतया स्वातन्त्र्येण प्रतीतिविरोधात्। 'प्रतिभास्यते' इत्येवं प्रत्ययप्रसङ्गात्,
सामान्यसे बाह्य नहीं हैं, अतएव प्रतिभासमान होने में प्रतिभासरूप प्रसिद्ध हैं।
२२६. जो और भी कहते हैं कि_ 'यद्यपि वस्तु प्रतिभासमान है तथापि वह प्रतिभाससे भिन्न प्रसिद्ध होती है और इसलिये वह प्रतिभासके अन्तर्गत नहीं हो सकती है। प्रकट है कि प्रतिभास ज्ञान है वह स्वयं प्रतिभासित नहीं होता, क्योंकि अपने आपमें क्रियाका विरोध है-अपने में अपनी क्रिया नहीं होती है, इसलिये प्रतिभास (ज्ञान) अन्य ज्ञानद्वारा जानने योग्य सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त, प्रतिभासकी विषयभूत वस्तु भी स्वयं प्रतिभासमान नहीं है, क्योंकि वह ज्ञय है-ज्ञानद्वारा जाननेयोग्य है अतः वस्तुके ज्ञानद्वारा ही प्रतिभासपना सिद्ध है-स्वयं नहीं और इसलिये 'स्वयं प्रतिभासमानपना' हेतु असिद्ध है। ऐसी हालतमें वह किसी पदार्थको प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत नहीं साध सकता है। परसे प्रतिभासमानपना तो स्पष्टतः विरुद्ध है क्योंकि वह प्रतिभाससे बाह्यको सिद्ध करता है। यथार्थतः परसे प्रतिभासमानपना परके बिना नहीं बन सकता है।'
२२७. वे भी अपने दर्शनके पक्षपाती ही हैं-तटस्थभावसे विचार करनेवाले नहीं हैं, क्योंकि यदि ज्ञान स्वयं प्रतिभासमान न हो-स्वयं अपना प्रतिभास न करता हो तो अन्य ज्ञानसे भी उसका प्रतिभास नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त, 'प्रतिभासते' अर्थात् 'ज्ञान प्रतिभासित होता है' इस प्रकारकी प्रतिभासको एकतासे स्वतंत्रतापूर्वक जो प्रतीति
1. द 'योऽप्याह' ।
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