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कारिका ८६ ] सुगत-परोक्षा
२४७ स्यापि प्रतिभासमानस्य प्रतिभासमात्रात्मनः परमब्रह्मणो बहिर्भावाभावात् । तदबहिभूतस्य द्वितीयत्वायोगात् ।
२२४. एतेन षोडशपदार्थप्रतीत्या प्रागभावादिप्रतीत्या च पुरुषा. द्वैतं बाध्यत इति वदन्निवारितः, तैरपि प्रतिभासमानैर्द्रव्यादिपदार्थ रिव प्रतिभासमात्रादबहिभूतैः पुरुषाद्वैतस्य बाधनायोगात् । स्वयमप्रतिभासमानस्तु सद्भावव्यवस्थामप्रतिपद्यमानस्तस्य बाधने शशविषाणादिभिरपि स्वेष्टपदार्थनियमस्य बाधनप्रसङ्गात् ।
5 २२५. एतेन सांख्यादिपरिकल्पितैरपि प्रकृत्यादितत्त्वैः पुरुषाद्वैतं न बाध्यत इति निगदितं बोद्धव्यम्। न चात्र पुरुषा ते यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टौ योगाङ्गानि योगो वा सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च योगफलं च विभूतिकैवल्यलक्षणं विरुद्धयते, प्रतिभासमात्रात्तबहिर्भावाभावात् प्रतिभासमानत्वेन तथाभावप्रसिद्धः। क्योंकि प्रमाणादि चारों भो यदि प्रतिभासमान हैं तो वे प्रतिभाससामान्यरूप हो हैं, परब्रह्मसे बाह्य नहीं हैं और जो उससे बाह्य नहीं है वह (द्वितीय) दूसरा नहीं है-उससे अभिन्न है।
२२४. इसी कथनसे 'सोलह पदार्थों और प्रागभावादिकोंकी प्रतीति होनेसे पुरुषाद्वैत बाधित होता है' ऐसा कहनेवालेका भी निराकरण हो हो जाता है, क्योंकि वे भो द्रव्यादिपदार्थों की तरह यदि प्रतिभासमान हैं तो प्रतिभाससामान्यके बाहर नहीं हैं-उसके अन्तर्गत ही हैं और इसलिये उनसे पुरुषाद्वैतका बाधन नहीं हो सकता है। यदि वे प्रतिभासमान नहीं हैं तो उनका सद्भाव ही व्यवस्थित नहीं होता और उस हालतमें उनसे पुरुषाद्वैतकी बाधा माननेपर शशविषाण आदिसे भी अपने इष्ट पदार्थके नियम में बाधा प्रसक्त होगी। तात्पर्य यह कि यदि अप्रतिभासमान भी पदार्थ किसी का बाधक हो तो खरविषाणादिसे भी सभी मतानुयायिओंके इष्ट तत्त्व बाधित हो जायेंगे और इस तरह किसोके भी तत्त्वोंकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी।
२२५. इसी विवेचनसे सांख्यादिकोंद्वारा माने गये प्रकृति आदि तत्त्वोंसे भी पुरुषाद्वैत बाधित नहीं होता, यह कथन समझ लेना चाहिये।
तथा इस पुरुषाद्वैतमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ योगके अंग और सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात ये दो योग तथा विभूति (ऐश्वर्य) और कैवल्यरूप ये दो योगके फल विरोधको प्राप्त नहीं होते-वे बन जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिभा
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