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कारिका ८६ ]
सुगत- परीक्षा
मात्रान्तः प्रविष्टत्वसिद्धेः पुरुषाद्व तसिद्धिरेव स्यात् न पुनस्तद्बहिर्भूत
संवेदनाद्व तसिद्धिः ।
[चित्ताद्वैतस्य निराकरणम् ]
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$ २३४. माभून्निरंश संवेदनाद्वतम् चित्राद्वं तं तु स्यात् ' चित्राद्वैतस्य व्यवस्थापनात् । कालत्रयत्रिलोकवतिपदार्थाकारा संविचिचत्राऽप्येका शश्वदशक्यविवेचनत्वात् ', सर्वस्य वादिनस्तत एव क्वचिदेकत्वव्यवस्थापनात् । अन्यथा कस्यचिदेकत्वेनाभिमतस्याप्येकत्वासिद्धिरिति चेत्; न, एवमपि परमब्रह्मण एव प्रसिद्धेः सकलदेशकालाकारव्यापिनः संविन्मात्रस्यैव परमब्रह्मत्ववचनात् । न चैकक्षणस्थायिनी चित्रा संवित् चित्राद्वैतमिति साधयितुं शक्यते, तस्याः कार्यकारणभूतचित्रसंविन्नान्तरीयकत्वाच्चित्रा द्वैतप्रसङ्गात् । तत्कार्यकारणचित्रसंविदो
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मानते हैं तो सबको प्रतिभाससामान्य के अन्तर्गत सिद्ध होनेसे पुरुषाद्वै तकी ही सिद्धि होती है उससे बाहर ( भिन्न ) संवेदनाद्वैत की नहीं ।
$ २३४. चित्राद्वैतवादी - ठीक है, निरंश संवेदनाद्वैत न हो, किन्तु चित्राद्वैत हो, क्योंकि चित्राद्वैतको व्यवस्था होती है: -- तीनों कालों और तीनों लोकोंमें रहनेवाले पदार्थोंके आकार होनेवाली चित्र ( अनेकरूप ) भी संवत् (बुद्धि) एक है क्योंकि सदैव अशक्यविवेचन है— कभी भी उसका विश्लेषण नहीं हो सकता है। जिसका विश्लेषण नहीं हो सकता वह एक है । सभी दार्शनिक इसी अशक्यविवेचनसे ही किसी में एकताकी व्यवस्था करते हैं । नहीं तो जिसे एक माना जाता है उसके भी एकताकी सिद्धि नहीं हो सकती है।
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वेदान्ती - नहीं, क्योंकि इसप्रकार भी परमब्रह्मकी ही प्रसिद्धि होती है । कारण, सम्पूर्ण देशों, कालों और आकारोंमें व्याप्त संवित्सामान्यको ही परमब्रह्म कहा जाता है । और यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि एक क्षण ठहरनेवाली चित्रा संवित् चित्राद्वैत है क्योंकि वह कार्य - कारणरूप चित्रसंवित्की अविनाभाविनी है और इसलिये दो चित्राबुद्धियोंका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । यदि चित्राबुद्धिकी कार्य और कारण -
1. द 'चित्राद्वैतं तु स्यात्' इति पाठो नास्ति ।
2. द 'विवेचनात्' ।
3. द स ' व्यस्थानात्' ।
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व ' चित्र द्वितप्रसंगात्' नास्ति ।
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