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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
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न सम्यक्; प्रतिभाससामान्यस्य प्रतिभासविशेषनान्तरीयकत्वात्प्रतिभासा-द्वैतविरोधात्, सन्तोऽपि प्रतिभासविशेषाः सत्यतां न प्रतिपद्यन्ते, संवादकत्वाभावात्, स्वप्नादिप्रतिभासविशेषवत् इति चेत्; न प्रतिभाससामान्यस्याप्यसत्यत्वप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तु प्रतिभाससामान्यमसत्यम्, विसंवादकत्वात्, स्वप्नादिप्रतिभास सामान्यवदिति । न हि स्वप्नादिप्रतिभासविशेषा एव विसंवादिनो न पुनः प्रतिभाससामान्यं तद्वयापकमिति वक्तु ं युक्तम्, शशविषाण- गगनकुसुम - कूर्म रोमादीनामसत्त्वेऽपि तद्वयापकसामान्यस्य सत्त्वप्रसङ्गात् । कथमस्तां व्यापकं किञ्चित्स' त्स्यादिति चेत्, कथमसत्यानां प्रतिभासविशेषाणां व्यापकं प्रतिभाससामान्यं सत्यम् ? इति : समो वितर्कः । तस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वथा वाऽविच्छेदात्सत्यं तदिति चेत्,
[ कारिका ८६.
जैन - आपका यह कथन भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि प्रतिभास-सामान्य प्रतिभासविशेषोंका अविनाभावी है - वह उनके बिना नहीं हो सकता है और इसलिये प्रतिभाससामान्य और प्रतिभासविशेष इन दोके सिद्ध होनेसे आपका प्रतिभासाद्वैत ( प्रतिभाससामान्याद्वत ) नहीं बन सकता है --- उसके विरोधका प्रसंग आता है ।
वेदान्ती - प्रतिभासविशेष हैं तो, पर वे सत्य नहीं हैं क्योंकि उनमें संवादकता - प्रमाणता नहीं है, जैसे स्वप्नादिप्रतिभासविशेष ?
जैन - नहीं, क्योंकि इस तरह तो प्रतिभाससामान्य भी सत्य नहीं ठहरेगा । हम कह सकते हैं कि प्रतिभाससामान्य असत्य है क्योंकि विसंवादी है - अप्रमाण जैसे स्वप्नादिप्रतिभाससामान्य । यह नहीं कहा जा सकता कि स्वप्नादिप्रतिभासविशेष ही विसंवादी हैं, उनमें व्याप्त होने-वाला प्रतिभाससामान्य नहीं, अन्यथा खरविषाण, आकाशफल, कछुए के रोम आदिका अभाव होनेपर भी उनमें व्यापक सामान्यके सद्भावका प्रसंग आवेगा ।
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वेदान्ती - खविषाण आदि असत् हैं, अतः उनका व्यापक कोई सत् कैसे हो सकता है ? अर्थात् खरविषाणादिक अविद्यमान होनेसे उनके व्यापक सामान्यके सद्भावका प्रसंग नहीं आता ?
जैन - तो असत्य प्रतिभासविशेषों में व्यापक ( रहनेवाला ) प्रतिभाससामान्य सत्य कैसे है ? यह प्रश्न तो दोनोंके लिये समान है । तात्पर्य यह कि जब प्रतिभासविशेष असत्य हैं तो उनमें रहनेवाला प्रतिभाससामान्य भी असत्य ठहरेगा - वह भी सत्य नहीं हो सकता ।
1. द 'सत्यं ।
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