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कारिका ८६ ]
परमपुरुष - परीक्षा
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पपत्तेः परोक्षज्ञानस्य करणस्य कल्पना नानथिकेति चेत्, न, मनसश्च - क्षुरावेदचान्तर्बहिः करणस्य परिच्छित्तौ' सद्भावात्ततो बहिर्भूतस्य करणान्तरस्य कल्पनाया मनवस्थाप्रसङ्गात् । ततः स्वार्थपरिच्छेदकस्य पुंसः फलज्ञानस्य वा स्वायं परिच्छित्तिस्वभावस्य प्रसिद्धौ स्याद्वादिदर्शनस्यैव प्रसिद्धेः । स्वयं प्रतिभासमानस्यात्मनो ज्ञानस्य वा धर्मः क्वचित्तद्विषये कथञ्चिदुपचर्यत इति । सत्तासामान्यं प्रतिभासते प्रतिभासविषयो भवतीति उच्यते । न चैवं प्रतिभासमात्रे तस्यानुप्रवेशः सिद्ध्येत्, परमार्थतः संवेदनस्यैव स्वयं प्रतिभासमानत्वात् ।
$ २४१. स्यान्मतम्-न सत्तासामान्यं प्रतिभासमात्रम्, तस्य द्रव्यादि - मात्र व्यापकत्वात्सामान्यादिषु प्रागभावादिषु चाभावात् । किं तर्हि ? सकलभावाभावव्यापक प्रतिभाससामान्यं प्रतिभासमात्रमभिधीयते इति तदपि
भाट्ट और प्राभाकर- - बात यह है कि कर्ताका करणके बिना क्रिया में व्यापार नहीं हो सकता है, इसलिये करणरूप परोक्षज्ञानकी कल्पना निरर्थक नहीं है ।
जैन - नहीं, क्योंकि जब मन और चक्षुरादिक इन्द्रियाँ भीतरी और बाहिरी करणज्ञान करनेमें मौजूद हैं तो उनसे भिन्न अन्य करणको कल्पना करने में अनवस्था आती है । तात्पर्य यह कि सुखदुःखादिका ज्ञान अन्तरंग करण मनसे हो जाता है और बाह्य पदार्थोंका ज्ञान बाह्य करण चक्षुराfar इन्द्रियोंसे हो जाता है । अतः स्वार्थपरिच्छित्ति में ये दो ही करण पर्याप्त हैं, अन्य नहीं । अतः स्वार्थपरिच्छेदक आत्मा अथवा स्वाथपरिच्छेदक फलज्ञानके प्रसिद्ध हो जानेपर हमारे स्याद्वाददर्शनकी ही सिद्धि होती है और इसलिये स्वयं प्रतिभासमान आत्मा अथवा ज्ञानके धर्मका किसी ज्ञानके विषय में कथंचित् उपचार बन जाता है । अतएव 'सत्तासामान्य प्रतिभासित होता है' अर्थात् 'प्रतिभासका विषय होता है' यह कहा जाता है । और इससे उसका प्रतिभासमात्र में प्रवेश सिद्ध नहीं होता, क्योंकि परमार्थतः संवेदन ( ज्ञान ) ही स्वयं प्रतिभासमान है ।
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$ २४१. वेदान्ती - सत्तासामान्यरूप प्रतिभासमात्र नहीं है, क्योंकि वह केवल द्रव्यादिकों में रहता है, सामान्यादिकों और प्रागभावादिकों में नहीं रहता है । फिर वह किसरूप है ? यह प्रश्न किया जाय तो उसका उत्तर यह है कि समस्त भाव और अभावमें रहनेवाले प्रतिभाससः मान्यको हम प्रतिभासमात्र कहते हैं अर्थात् प्रतिभासमात्र प्रतिभाससामान्यरूप है ।
1. प्राप्त प्रतिषु 'बहिः परिच्छितो करणस्य इति पाठ: ।
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