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कारिका ८६ ]
सुगत- परीक्षा
तेषां संवेदनेनाग्रहणादभाव इति चेत्, स्वसंवेदनस्यापि संवेदनान्तरेणाग्रहणादभावोऽस्तु । तस्य स्वयं प्रकाशनान्नाभाव इति चेत्, पूर्वोत्तरस्वसंवित्क्षणानां सन्तानान्तरसंवेदनानां च बहिरर्थानामिव स्वयं प्रकाशमानानां कथयभावः साध्यते ? कथं तेषां स्वयं प्रकाशमानत्वं ज्ञायते ? इति चेत्, स्वयमप्रकाशमानत्वं तेषां कथं साध्यते ? इति समानः पर्यनुयोगः । स्वसंवेदनस्वरूपस्य प्रकाशमानत्वमेव तेषामप्रकाशमानत्वमिति चेत्, तर्हि तेषां प्रकाशमानत्वमेव स्वसंवेदनस्यैवाप्रकाशमानत्वं किं न स्यात् ? स्वसंवेदनस्य स्वयमप्रकाशमानत्वे परैः प्रकाशमानत्वाभावः साधयितुमशक्यः प्रतिषेधस्य विधिविषयत्वात् ' । सर्वत्र सर्वदा सर्वयाऽप्यसतः प्रतिषेधविरोधात् इति चेत्, तर्हि स्वसंवेदनात्परेषां क्षणों, अन्य सन्तानों तथा बाह्य पदार्थोंका अभाव सिद्ध हो ।
योगाचार - पूर्वोत्तरक्षणों आदिका संवेदनसे ग्रहण नहीं होता, इसलिये उनका अभाव है ?
वेदान्ती - स्वसंवेदनका भी अन्य संवेदनसे ग्रहण नहीं होता, इसलिये उसका भी अभाव हो ।
योगाचार - स्वसंवेदन स्वयं प्रकाशमान है, इसलिये उसका अभाव नहीं है ?
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वेदातो-तो पूर्वोत्तरवर्ती स्वसंवेदनक्षणों, अन्यसन्तानीय ज्ञानों और बाह्य पदार्थों का, जो स्वयं प्रकाशमान हैं, कैसे अभाव सिद्ध करते हैं ? योगाचार - वे स्वयं प्रकाशमान हैं, यह कैसे जानते हैं ?
वेदान्ती - वे स्वयं अप्रकाशमान हैं, यह कैसे सिद्ध करते हैं ? इस प्रकार यह प्रश्न एक-सा है |
योगाचार - स्वसंवेदनका स्वरूप स्वयं प्रकाशमान ही है, अत एव वे अप्रकाशमान हैं ?
वेदान्ती - तो वे पूर्वोत्तरक्षणादि प्रकाशमान ही हैं और इसलिये स्वसंवेदन ही अप्रकाशमान क्यों न हो ?
योगाचार - यदि स्वसंवेदन स्वयं अप्रकाशमान हो तो आप उसके प्रकाशमानताका अभाव सिद्ध नहीं कर सकते हैं क्योंकि निषेध विधिपूर्वक होता है । जो सब जगह सब कालमें किसी भी प्रकार सत् नहीं है उसका प्रतिषेध नहीं हो सकता है । तात्पर्य यह कि जिसकी विधि ( सद्भाव ) नहीं उसका निषेध कैसा ?
1. स मु 'विर्घोवषयत्वाद्' |
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