________________
कारिका ८६ ]
परमपुरुष-परोक्षा
"आदावन्ते च यन्नास्ति वर्त्तमानेऽपि तत्तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा एव लक्षिताः । " [ गौडपा. का. ६. पृ० ७० वैतथ्याख्यप्र० ] इति । ९ २३७ तेषामवितथानादावन्ते चासत्त्वेऽपि वर्त्तमाने सत्त्वप्रसिद्धेबाधकप्रमाणाभावात् । न हि यथा स्वप्नादिभ्रान्तप्रतिभासविशेषेषु तत्कालेsपि बाधकं प्रमाणमुदेति तथा जाग्रद्दशायामभ्रान्तप्रतिभासविशेषेषु तत्र साधकप्रमाणस्यैव सद्भावात् । सम्यङ् मया तदा दृष्टोsर्थोऽर्थक्रियाकारित्वात् तस्य मिथ्यात्वेऽर्थक्रियाकारित्वविरोधात् इन्द्रजालादिपरिदृष्टार्थवदिति । न च भ्रान्तेतरव्यवस्थायां चाण्डालादयोऽपि विप्रतिपद्यन्ते । तथा चोक्तमकलङ्कदेव:
--
"इन्द्रजालादिषु भ्रान्तमीरयन्ति न चापरम् । अपि चाण्डाल - गोपाल- बाल -लोलविलोचनाः ॥” [ न्यायविनि० का० ५१ ] इति ।
Jain Education International
२६१
" जो आदि में और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी नहीं है । अतएव मिथ्या प्रतिभासविशेषोंके समान हो सत्य और सद्भावात्मक प्रतिभासविशेष जानना चाहिये ।" [ गौडपा० का ० ६, पृ० ७० ] ।
$ २३७. जो प्रतिभासविशेष अमिथ्या हैं वे आदिमें और अन्त में भले हो असत् हो - अविद्यमान हों, पर वर्त्तमानमें उनका सत्त्व प्रसिद्ध है, क्योंकि कोई बाधकप्रमाण नहीं है । स्पष्ट है कि जिस प्रकार स्वप्नादि मिथ्याप्रतिभासविशेषोंमें उस समय में भो बाधक प्रमाण उत्पन्न होता है उस प्रकार जागृत अवस्था में होनेवाले सत्य प्रतिभासविशेषों में वह उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वहाँ साधक प्रमाण ही रहते हैं । वहाँ यह स्पष्टतया प्रतोति होती है कि 'मैंने उस समय पदार्थ अच्छी तरह देखा, क्योंकि वह अर्थक्रियाकारी है । यदि वह मिथ्या हो तो उससे अर्थक्रिया नहीं हो सकती, जैसे इन्द्रजाल आदिमें देखा गया पदार्थ ।' दूसरे, अमुक भ्रान्त ( मिथ्या ) है और अमुक अभ्रान्त ( सत्य ) है इस प्रकारकी व्यवस्था में तो चाण्डालादिकों को भी विवाद नहीं है - वे भी स्वप्नादि प्रतिभासविशेषों को मिथ्या और जागरणदशामें होनेवाले प्रतिभासविशेषोंको सच स्वीकार करते हैं । अत एव अकलङ्कदेवने कहा है
" विद्वानों को जाने दीजिये, जो विद्वान् नहीं हैं ऐसे चाण्डाल, ग्वाल, बच्चे और स्त्रियाँ भी इन्द्रजालादिकों में देखे गये अर्थको भ्रान्त बतलाते हैं, अभ्रान्त नहीं ।" [ न्यायविनिश्चय का० ५१ ] ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org