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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
$ २३१. स्यान्मतम्
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"नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्याऽस्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्मग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव
प्रकाशते || "
[ कारिका ८६
[ प्रमाणवा. ३।३२७ ]
$ २३२. इति वचनान्त बुद्धेः किञ्चिद् ग्राह्यमस्ति, नापि बुद्धिः कस्यचिद् ग्राह्या स्वरूपेऽपि ग्राह्यग्राहकभावाभावात् । "स्वरूपस्य स्वतो गति:" [ प्रमाणवा० १-६ ] इत्येतस्यापि संवृत्त्याऽभिधानात् । परमार्थतस्तु बुद्धिः स्वयं प्रकाशते चकास्तीत्येवोच्यते न पुनः स्वरूपं गृह्णाति ग्राह्यग्राहकवेधुर्यं च स्वरूपादव्यतिरिक्तं गृह्णाति जानातीत्यभिधीयते, निरंशसंवेदनाद्वै ते तथाऽभिधानविरोधादिति, तदपि न पुरुषाद्वैतवादिनः प्रतिकूलम्, स्वयं प्रकाशमानस्य संवेदनस्यैव परमपुरुषत्वात् । न हि तत्संवेदनं पूर्वापरकालब्यवच्छिन्नं सन्तानान्तर बहिरर्थव्यावृत्तं च प्रतिभासते, यतः पूर्वापरक्षण सन्तानान्तर बहिरर्थानामभावः सिद्ध्येत् ।
ग्राह्य-ग्राहकका अभाव ग्राह्य इस तरह वही ग्राह्य ग्राहकभाव पुनः सिद्ध हो जाता है ।
$ २३१. योगाचार हमारा अभिप्राय यह है कि
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'बुद्धि से अनुभाव्य - अनुभव किया जानेवाला अन्य दूसरा नहीं है और बुद्धिसे अलग कोई अनुभव नहीं है क्योंकि ग्राह्य ग्राहकका अभाव है और इसलिये बुद्धि ही स्वयं प्रकाशमान होती है ।' [प्रमाणवा० ३-३२७] $ २३२. ऐसा प्रमाणवार्तिकार धर्मकीर्तिका वचन है । अत एव बुद्धिसे कोई ग्राह्य है और न स्वयं बुद्धि भी किसीकी ग्राह्य है क्योंकि स्वरूपमें भी ग्राह्य-ग्राहकभावका अभाव है । " स्वरूपका अपनेसे ज्ञान होता है" [ प्रमाणवा० १-६ ] यह प्रतिपादन भी संवृत्तिसे है । वास्तवमें तो 'बुद्धि स्वयं प्रकाशित होती है' यही कहा जाता है न कि स्वरूपको ग्रहण करती है और स्वरूपसे अभिन्न ग्राह्यग्राहकके अभावको ग्रहण करती है अर्थात् जानती है, यह कहा जाता है क्योंकि निरंश अद्वैत संवेदन में वैसा कथन नहीं हो सकता है ?
वेदान्ती - आपका यह अभिप्राय भी हमारे लिये विरुद्ध नहीं है, क्योंकि स्वयं प्रकाशमान संवेदनको हो हम परमपुरुष कहते हैं । स्पष्ट है कि वह संवेदन पूर्व और उत्तरकालसे व्यवच्छिन्न तथा अन्य सन्तान एवं बाह्य पदार्थ से व्यावृत्त प्रतिभासित नहीं होता, जिससे कि पूर्व और उत्तर
1. द ' ग्राह्यस्वरूपति' ।
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