Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 367
________________ २५४ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका $ २३१. स्यान्मतम् - "नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्याऽस्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्मग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते || " [ कारिका ८६ [ प्रमाणवा. ३।३२७ ] $ २३२. इति वचनान्त बुद्धेः किञ्चिद् ग्राह्यमस्ति, नापि बुद्धिः कस्यचिद् ग्राह्या स्वरूपेऽपि ग्राह्यग्राहकभावाभावात् । "स्वरूपस्य स्वतो गति:" [ प्रमाणवा० १-६ ] इत्येतस्यापि संवृत्त्याऽभिधानात् । परमार्थतस्तु बुद्धिः स्वयं प्रकाशते चकास्तीत्येवोच्यते न पुनः स्वरूपं गृह्णाति ग्राह्यग्राहकवेधुर्यं च स्वरूपादव्यतिरिक्तं गृह्णाति जानातीत्यभिधीयते, निरंशसंवेदनाद्वै ते तथाऽभिधानविरोधादिति, तदपि न पुरुषाद्वैतवादिनः प्रतिकूलम्, स्वयं प्रकाशमानस्य संवेदनस्यैव परमपुरुषत्वात् । न हि तत्संवेदनं पूर्वापरकालब्यवच्छिन्नं सन्तानान्तर बहिरर्थव्यावृत्तं च प्रतिभासते, यतः पूर्वापरक्षण सन्तानान्तर बहिरर्थानामभावः सिद्ध्येत् । ग्राह्य-ग्राहकका अभाव ग्राह्य इस तरह वही ग्राह्य ग्राहकभाव पुनः सिद्ध हो जाता है । $ २३१. योगाचार हमारा अभिप्राय यह है कि - Jain Education International 'बुद्धि से अनुभाव्य - अनुभव किया जानेवाला अन्य दूसरा नहीं है और बुद्धिसे अलग कोई अनुभव नहीं है क्योंकि ग्राह्य ग्राहकका अभाव है और इसलिये बुद्धि ही स्वयं प्रकाशमान होती है ।' [प्रमाणवा० ३-३२७] $ २३२. ऐसा प्रमाणवार्तिकार धर्मकीर्तिका वचन है । अत एव बुद्धिसे कोई ग्राह्य है और न स्वयं बुद्धि भी किसीकी ग्राह्य है क्योंकि स्वरूपमें भी ग्राह्य-ग्राहकभावका अभाव है । " स्वरूपका अपनेसे ज्ञान होता है" [ प्रमाणवा० १-६ ] यह प्रतिपादन भी संवृत्तिसे है । वास्तवमें तो 'बुद्धि स्वयं प्रकाशित होती है' यही कहा जाता है न कि स्वरूपको ग्रहण करती है और स्वरूपसे अभिन्न ग्राह्यग्राहकके अभावको ग्रहण करती है अर्थात् जानती है, यह कहा जाता है क्योंकि निरंश अद्वैत संवेदन में वैसा कथन नहीं हो सकता है ? वेदान्ती - आपका यह अभिप्राय भी हमारे लिये विरुद्ध नहीं है, क्योंकि स्वयं प्रकाशमान संवेदनको हो हम परमपुरुष कहते हैं । स्पष्ट है कि वह संवेदन पूर्व और उत्तरकालसे व्यवच्छिन्न तथा अन्य सन्तान एवं बाह्य पदार्थ से व्यावृत्त प्रतिभासित नहीं होता, जिससे कि पूर्व और उत्तर 1. द ' ग्राह्यस्वरूपति' । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476