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कारिका ८६ ] सुगत-परीक्षा
२५३ तु सम्भवाभावात्संवृत्याऽपि व्यवहारविरोधात् सकलविकल्पवाग्गोचरातिक्रान्ततापत्तेः। संवेदनमात्रं चैकक्षणस्थायि यदि किञ्चित्कार्यं न कुर्यात्, तदा वस्त्वेव न स्यात्, वस्तुनोऽर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात्। करोति चेत, कार्यकारणभावः सिद्ध्येत् । तस्य हेतुमत्वे च स एव कार्यकारणभावः। कारणरहितत्वे तु नित्यतापत्तिः संवेदनस्य, सतोऽकारणवतो नित्यत्वप्रसिद्धेरिति प्रतिभासमात्रात्मनः पुरुषतत्त्वस्यैव सिद्धिः स्यात् ।
$ २३०. किञ्च, क्षणिकसंवेदनमात्रस्य ग्राह्यग्राहकवैधुयं यदि केनचित्प्रमाणेन गृह्यते, तदा ग्राह्यग्राहकभावः कथं निराक्रियते ? न गृह्यते चेत्; कुतो ग्राह्यग्राहकवैधुर्यसिद्धिः ? स्वरूपसंवेदनादेवेति चेत्, तर्हि संवेदनाद्वैतस्य स्वरूपसंवेदनं ग्राहक ग्राह्यग्राहकवैधुयं तु ग्राह्यमिति स एव ग्राह्यग्राहकभावः।
सकता है। यदि वे स्वयं प्रतिभासमान न हों तो उनका सद्भाव न होनेसे कल्पनासे भो व्यव:पर नहीं बन सकता और उस हालतमें समस्त विकल्प और वचनोंके वे विषय नहीं हो सकेंगे। अर्थात् किसी भी शब्दादिद्वारा उनका कथन नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि एक क्षण ठहरनेवाला संवेदन यदि कुछ कार्य न करे तो वह वस्तु ही नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थक्रिया करना वस्तुका लक्षण है । यदि करता है तो कार्यकारणभाव सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार संवेदन यदि हेतुमान्-कारणवाला है तो वही कार्यकारणभाव सिद्ध हो जाता है और अगर कारणरहित है तो संवेदनके नित्यपनेका प्रसंग आता है क्योंकि जो विद्यमान है और कारणरहित है वह नित्य माना गया है। इस तरह प्रतिभासामान्यरूफ पुरुषतत्त्वकी ही सिद्धि होतो है ।
२३०. अपि च, यदि क्षणिक संवेदनके ग्राह्य-ग्राहकका अभाव किसी प्रमागसे गृहीत होता है तो ग्राह्य-ग्राहकभावका कैसे निराकरण करते हैं ? यदि गृहीत नहीं होता है तो ग्राह्य-ग्राहकके अभावकी सिद्धि किससे करेंगे? यदि कहा जाय कि स्वरूपसंवेदनसे ही ग्राह्य-ग्राहकके अभावको सिद्धि होती है तो संवेदनाद्वैतका स्वरूपसंवेदन तो ग्राहक और
1. मुक 'प्रतिभासमानात्मनः' । मुब 'प्रतिभासमात्मनः'। 2. व निराक्रियेत'।
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