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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ८६ प्रसज्यते । न चोपनिषद्वाक्यमपि परमपुरुषादन्यदेव तस्य प्रतिभासमानस्य परमपुरुषस्वभावत्वसिद्धेः। - २२२. यदपि कैश्चिन्निगद्यते-पुरुषाढ तस्यानुमानात्प्रसिद्धौ पक्षहेतुदृष्टान्तानामवश्यम्भावात् तैविनाऽनुमानस्यानुदयात्कुतः पुरुषाद्वतं सिद्ध्येत ?, पक्षादिभेदस्य सिद्धेरिति, तदपि न युक्तिमत; पक्षादीनामपि प्रतिभासमानानां प्रतिभासान्तःप्रविष्टानां प्रतिभासमात्राबाधकत्वादनुमानवत् । तेषामप्रतिभासमानानां तु सद्भावाप्रसिद्धः कुतः पुरुषातविरोधित्वम् ?
$ २२३. यदप्युच्यते कैश्चित्-पुरुषाढतं तत्त्वं परेण प्रमाणेन प्रतीयमानं प्रमेयं तत्परिच्छित्तिश्च प्रमितिः प्रमाता च यदि विद्यते, तदा कथं पुरुषाद्वैतम् ?, प्रमाणप्रमेयप्रमातृप्रमितीनां तात्त्विकोनां सद्भावात्तत्वचतुष्टयप्रसिद्ध रिति; तदपि न विचारक्षमम्; प्रमाणादिचतुष्टयद्वैतसिद्धिका प्रसंग नहीं आता। और उपनिषद् वाक्य भी परमपुरुषसे भिन्न नहीं है, क्योंकि वह प्रतिभासमान होनेसे परमपुरुषका स्वभाव सिद्ध होता है।
६२२२. जो और भी किन्हींने कहा है कि
'पुरुषादत की अनुमानसे सिद्धि करने पर पक्ष, हेतु, और दृष्टान्त अवश्य मानना पड़ेंगे, क्योंकि उनके बिना अनुमानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, तब पुरुषाद्वैत कैसे सिद्ध हो सकता है ? कारण, पक्षादिभेद सिद्ध है' वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि पक्षादिक भी यदि प्रतिभासमान हैं तो वे प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत हैं, अतः वे प्रतिभाससामान्यके बाधक नहीं हैं जैसे अनुमान । और अगर वे प्रतिभासमान नहीं हैं तो उनका सद्भाव असिद्ध है और ऐसी दशामें वे पुरुषाद्वैतके विरोधी कैसे हो सकते हैं ?
$२२३. जो और भी किन्हींने कहा है कि
'पुरुषाद्वैत तत्त्व अन्य प्रमाणसे प्रतीत होता हुआ प्रमेय और उसकी परिच्छित्तिरूप प्रमिति तथा प्रमाता यदि हैं तो पुरुषाद्वैत कैसे बन सकता है ? क्योंकि प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति इन चारका वास्तविक सद्भाव होनेसे चार तत्त्व प्रसिद्ध होते हैं।' वह भी विचारसह नहीं है,
1. द 'प्रज्येत' । 2. स 'प्रमी'। 3. मुस 'प्रमेयं तत्त्वं' । 4. मु 'द्धि'।
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