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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८६ प्रवादाः शशविषाणादयश्च नष्टानुत्पन्नाश्च रावणशकचक्रवर्त्यादयः कथमपाक्रियन्ते ? तेषामनपाकरणे कथं पुरुषाद्वैतसिद्धिरिति चेत्, न; तेषामपि प्रतिभासमात्रान्तःप्रविष्टत्वसाधनात् । $२१८. एतेन यदुच्यते कैश्चित्
"अद्वतैकान्तपक्षेऽपि दष्टो भेदो विरुद्ध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते।। कर्म-द्वैतं फल-द्वैतं लोक-द्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद्बन्धमोक्ष-द्वयं तथा।
[ आप्तमी० का० २४, २५ ] इति । $ २१९. तदपि प्रत्याख्यातम्; क्रियाणां कारकाणां च दृष्टस्य भेदस्य प्रतिभासमानस्य पुण्यपापकर्मद्वैतस्य तत्फलद्वैतस्य च सुख-दुःखलक्षणस्य लोकद्वैतस्येह-परलोकविकल्पस्य विद्या-विद्याद्वैतस्य च सत्येतरज्ञानभेदस्य बन्ध-मोक्षद्वयस्य च पारतन्त्र्य-स्वातन्त्र्य' स्वभावस्य प्रतिभासभासमान परस्पर विरुद्ध अर्थके प्रतिपादक मत-मतान्तरों और शशविषाणादिकों एवं नष्ट (नाश हुए) रावणादिकों और अनुत्पन्न (आगे होनेवाले) शंखचक्रवर्ती आदिकोंका आप कैसे निराकरण (अभाव) कर सकते हैं ? और उनका निराकरण न कर सकनेपर पुरुषाद्वतकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ? - वेदान्ती-नहीं, उनको भी हम प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत ही सिद्ध करते हैं । इसलिये कोई दोष नहीं है ।
६२१८. इस कथनसे जो किन्हींने कहा है कि
'अद्वैत एकान्त-पक्षमें क्रिया और कारकोंका दृष्ट ( देखा गया ) भेद विरोधको प्राप्त होता है अर्थात् अद्वैत-एकान्तमें प्रत्यक्ष-दृष्ट क्रियाभेद व कारकभेद नहीं बन सकता है, क्योंकि जो एक है वह अपनेसे उत्पन्न नहीं होता। इसके अलावा, अद्वत-एकान्तमें पुण्य और पाप ये दो कर्म, सुख
और दुःख ये उनके दो फल, इहलोक और परलोक ये दो लोक तथा विद्या और अविद्या ये दो ज्ञान एवं बन्ध और मोक्ष ये दो तत्त्व नहीं बन सकते हैं।'
२१९. वह भी निराकृत हो जाता है, क्योंकि क्रियाओं और कारकोंका दृष्ट भेद, पुण्य-नापरूप दो कर्म, सुख-दुःखमय उनके दो फल, इहलोक-परलोकरूप दो लोक, विद्या-अविद्यारूप दो ज्ञान और परतंत्रता
1. मु स 'स्वातन्त्र्य' इति नास्ति ।
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