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कारिका ८६ ] सुगत-परीक्षा
२४१ यथा चानुमानात्संवेदनाद्वैतं साध्यते यत्संवेद्यते तत्संवेदनमेव, यथा संवेदनस्वरूपम्, संवेद्यते' च नीलसुखादि', तथा पुरुषाद्वैतमपि वेदान्तवादिभिः साध्यते-प्रतिभास एवेदं सर्व प्रतिभासमानत्वात्, यद्यत्प्रतिभासमानं तत्तत्प्रतिभास एव, यथा प्रतिभासस्वरूपम्, प्रतिभासमानं चेदं जगत, तस्मात्प्रतिभास एवेत्यनुमानात् । न ह्यत्र जगतः प्रतिभासमानत्वमसिद्धम्, साक्षादसाक्षाच्च तस्याप्रतिभासमानत्वे सकलशब्दविकल्प. वाग्गोचरातिक्रान्ततया वक्तुमशक्तेः । प्रतिभासश्च चिद्रूप एव, अचिद्रूपस्य प्रतिभासत्वविरोधात् । चिन्मानं च पुरुषाद्वैतम्, तस्य च देशकालाकारतो विच्छेदानुपलक्षणत्वात् नित्यत्वं सर्वगतत्वं साकारत्वं च व्यवतिष्ठते । न हि स कश्चित्कालोऽस्ति यश्चिन्मात्रप्रतिभासशून्यः प्रतिभासविशेषस्यैव विच्छेदात्, नीलसुखादिप्रतिभासविशेषवत् । स दनाद्वैतकी जिस अन्य प्रमाणसे आप सिद्धि करेंगे वह साधन और संवेदनाद्वैत साध्य होगा और उस हालतमें साध्य-साधनरूप द्वैतका प्रसंग अवश्यंभावी है। और जिस प्रकार अनुमानसे संवेदनाद्वैत सिद्ध किया जाता है कि-'जो संविदित होता है वह संवेदन है, जैसे संवेदनका स्वरूप। और संविदित होते हैं नोलसुखादिक । उसी प्रकार पुरुषाद्वैत भी वेदान्तवादियोंद्वारा सिद्ध किया जाता है कि-'यह सब प्रतिभास ही है क्योंकि प्रतिभासमान होता है, जो-जो प्रतिभासमान होता है वह-वह प्रतिभास ही है।' जैसे प्रतिभासका स्वरूप । और प्रतिभासमान यह जगत् है, इस कारण वह प्रतिभास ही है।' यह उनका अनुमान है। स्पष्ट है कि यहाँ (अनुमानमें) जगतके प्रतिभासमानपना असिद्ध नहीं है, क्योंकि साक्षात् अथवा परम्परासे उसके प्रतिभासमान न होने पर समस्त शब्दों, समस्त विकल्पों और वचनोंका विषय न होनेसे उसका कथन नहीं किया जा सकता है। और प्रतिभास चिद्रूप-आत्मरूप ही है क्योंकि अचिद्रूपके प्रतिभासपना नहीं बन सकता है तथा चित्सामान्य पुरुषाद्वैत है। कारण, उसका देश, काल और आकारसे कभी भी नाश नहीं देखा जाता। अत एव उसके नित्यपना, सर्वगतपना और साकारपना व्यवस्थित होता है। निःसन्देह ऐसा कोई काल नहीं है जो चित्सामान्यके प्रतिभाससे रहित हो, प्रति
1. 'संवेद्यन्ते'। 2. म 'नीलसुखादीनि'। 3. व 'सकलशब्दविकल्पगोचरातिक्रान्तत्वेन' । 4. द 'स्वचिद्रूप'। 5. स ब म 'निराकारत्वं' ।
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