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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका संवेदनाद्वैतं पुरुषाद्वैतवन्न सिद्ध्येत्स्वतोऽन्यतो वाऽपि प्रमाणात्स्वेष्ट हानित: ॥ ८६ ॥
तत् ।
$ २१३. तद्धि संवेदनाद्वैतं न तावत्स्वतः सिद्ध्यति पुरुषाद्वैतवत्, स्वरूपस्य स्वतो गतेरभावात् । अन्यथा कस्यचित्तत्र विप्रतिपत्तेरयोगात्, पुरुषाद्वैतस्यापि प्रसिद्धेरिष्टहानिप्रसङ्गाच्च ।
२४०
यत्तु
$ २१४. ननु च पुरुषाद्वैतं न स्वतोऽवसोयते, तस्य नित्यस्य सकलstooryofपतया सर्वगतस्य च सकल देशप्रतिष्ठिततया वाऽनुभवा
भावादिति चेत्; न; संवेदनाद्वैतस्यापि क्षणिकस्यैकक्षणस्थायितया निरंशस्यैकपरमाणुरूपतया सकृदप्यनुभवाभावाविशेषात् ।
[ कारिका ८६
$ २१५. यदि पुनरन्यतः प्रमाणात्संवेदनाद्वै तसिद्धिः स्यात्, तदाऽपि स्वष्टहानिरवश्यम्भाविनी, साध्यसाधनयोरभ्युपगमे द्वैतसिद्धिप्रसङ्गात् ।
"जो संवेदनाद्वैत ( एक विज्ञानमात्र तत्त्व ) है वह पुरुषाद्वैत की तरह स्वतः सिद्ध नहीं होता और न अन्य प्रमाणसे भी सिद्ध होता है, क्योंकि अन्य प्रमाणसे उसकी सिद्धि माननेमें स्वेष्ट - अद्वैत संवेदनकी हानिका प्रसंग आता है ।"
$ २१३. वह संवेदनाद्वैत पुरुषाद्वैतकी तरह स्वयं सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वरूपका स्वयं ज्ञान नहीं होता है, अन्यथा किसीको उसमें विवाद नहीं होना चाहिये। दूसरे, पुरुषाद्वैतकी भी सिद्धि हो जायगी और इस तरह इष्ट-संवेदनाद्वैत की हानिका प्रसंग अनिवार्य है ।
$ २१४. योगाचार - हमारा अभिप्राय यह है कि पुरुषाद्वैत स्वतः नहीं जाना जाता, क्योंकि वह सम्पूर्ण कालों में व्याप्तरूपसे नित्य और समस्त देशों में वृत्तिरूपसे सर्वगत अनुभवमें नहीं आता है । अतः पुरुषाद्वैत कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ?
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जैन - नहीं, क्योंकि संवेदनाद्वैत भी एकक्षणवृत्तिरूपसे क्षणिक और एकपरमाणुरूपसे निरंश एक बार भी अनुभवमें नहीं आता है । अतः वह भी कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।
$ २१५. योगाचार - हम संवेदनाद्वैतकी सिद्धि स्वतः नहीं करते हैं, किन्तु अन्यप्रमाणसे करते हैं, अतः पुरुषाद्वैतका प्रसंग नहीं आता ?
जैन — इस तरह भी स्वष्टहानि अवश्य होती है को स्वीकार करनेपर द्वैतसिद्धिका प्रसङ्ग आता है ।
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क्योंकि साध्य - साधनतात्पर्य यह कि संवे.
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