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आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ८४
दिति सूक्तं सुगतोऽपि निर्वाणमार्गस्य न प्रतिपादकस्तत्त्वतो विश्वतत्त्व-ज्ञताऽपायात्, कपिलादिवत्' इति ।
[ योगाचारमतं प्रदर्श्य तन्निराकरणम् ]
$ २०७. येऽपि ज्ञानपरमाणव एव प्रतिक्षणविसरारव: ' परमार्थ सन्तो न बहिर्थपरमाणवः, प्रमाणाभावात्, अवयव्यादिवदिति योगाचारमतानुसारिणः प्रतिपद्यन्ते तेषामपि न संवित्परमाणवः स्वसंवेदनप्रत्यक्षतःप्रसिद्धाः, तत्र तेषामनवभासनादन्तरात्मन एव सुखदुःखाद्यनेकविवर्तव्यापिनः प्रतिभासनात् । तथाप्रतिभासोऽनाद्यविद्या वासना बलात्समुपजाय-मानो भ्रान्त एवेति चेन्न, बाधकप्रमाणाभावात् ।
$ २०८. नन्वेकः पुरुषः क्रमभुवः सुखादिपर्यायान् सहभुवश्च गुणान् किमेकेन स्वभावेन व्याप्नोत्यनेकेन वा । न तावदेकेन तेषामेकरूपताकहा गया है कि 'सुगत भी मोक्षमार्गका प्रतिपादक नहीं है क्योंकि उसके परमार्थतः सर्वज्ञताका अभाव है, जैसे कपिलादिक' |
$ २०७. योगाचार - प्रतिक्षण नाशशील ज्ञानपरमाणु ही वास्तविक हैं, बाह्य परमाणु नहीं, क्योंकि उनका साधक कोई प्रमाण नहीं है, जैसे अवयवी आदि । अतः सुगत ज्ञानपरमाणुओंका ज्ञाता और उनका प्रति-पादक सिद्ध होता है ?
जैन- आपके भी ज्ञानपरमाणु स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं हैं, क्योंकि उसमें उनका प्रतिभास नहीं होता है, केवल सुखदुःखादि अनेक पर्यायोंमें व्याप्त अन्तरात्माका ही उसमें प्रतिभास होता है ।
योगाचार - उक्त प्रकारका प्रतिभास अनादिकालीन अविद्याकी वासना के बलसे उत्पन्न होता है और इसलिये वह भ्रान्त है - सच्चा नहीं है ?
जैन - नहीं, क्योंकि उसमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है । तात्पर्य यह कि भ्रान्त वह प्रतिभास होता है जो प्रमाणसे बाधित होता है, किन्तु सुखदुःखादि पर्यायोंमें व्याप्त आत्माका जो स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे प्रतिभास होता है वह अबाधित है-बाधित नहीं है ।
$ २०८. योगाचार - एक आत्मा क्रमवर्ती अनेक सुखादि पर्यायों और सहभावी गुणोंको क्या एकस्वभावसे व्याप्त करता है अथवा अनेकस्वभावसे ? एकस्वभावसे तो वह व्याप्त कर नहीं सकता, क्योंकि उन
1.मु 'विशरारवः' ।
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