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कारिका ८४] सुगत-परीक्षा
२३३ प्रसिद्धः, तदभावे तदनुपपत्तेः। स्वार्थानुमानानुपपत्तौ च न परार्थानुमानरूपं श्रुतमिति क्व श्रुतमयी चिन्तामयी च भावना स्यात् ? यतस्तत्प्रकर्षपर्यन्तजं योगिप्रत्यक्षमुररीक्रियते। ततो न विश्वतत्त्वज्ञता सुगतस्य तत्त्वतोऽस्ति, येन सम्पूर्णं गतः सुगतः, शोभनं गतः सुगतः, सुष्ठु गतः सुगत इति सुशब्दस्य सम्पूर्णाद्यर्थत्रयमुदाहृत्य सुगतशब्दस्य निर्वचनत्रयमुपवर्ण्यते सकलाविद्यातष्णाप्रहाणाच्च सर्वार्थज्ञानवैतृष्ण्यसिद्धेः सुगतस्य जगद्धितैषिणः प्रमाणभूतस्य सन्तानेन सर्वदाऽवस्थितस्य विधूतकल्पनाजालस्यापि धर्मविशेषाद्विनेयजनसतत तत्त्वोपदेशप्रणयनं सम्भाव्यते, सौत्रान्तिकस्य मते विचार्यमाणस्य परमार्थतोऽर्थस्य व्यवस्थापनायोगा.
नहीं हो सकता है, क्योंकि वह लिङ्गदर्शन-लिङ्गके देखने और साध्यसाधनसम्बन्धके स्मरण होनेसे ही उत्पन्न होता है, यह प्रसिद्ध है। अतः उनके अभावमें वह नहीं बन सकता है। और स्वार्थानुमानके न बननेपर 'परार्थानुमानरूप श्रुत भी नहीं बन सकता है। इसप्रकार श्रुतमयी और चिन्तामयी भावनाएँ कहाँ बनती हैं, जिससे उनके चरम प्रकर्षसे उत्पन्न होनेवाला योगिप्रत्यक्ष स्वीकार किया जाती है ? तात्पर्य यह कि उक्त भावनाओंके सिद्ध न होनेसे उनसे योगिप्रत्यक्षकी उत्पत्ति मानना असम्भव और असङ्गत है। अतः सुगतके परमार्थतः सर्वज्ञता नहीं है, जिससे कि 'सम्पुर्णं गतः सुगतः, शोभनं गतः सुगतः' सुष्ठु गतः सुगतः'-जो सम्पूर्णताको प्राप्त है वह सुगत है, जो शोभनको प्राप्त है वह सुगत है, जो अच्छी तरह चला गया है-लौटकर आनेवाला नहीं है, वह सुगत है, इसप्रकार सुशब्दके सम्पर्णादि तीन अर्थोको उदाहरणद्वारा बतलाकर 'सुगत' शब्दको तोन निष्पत्तियाँ वणित करते हैं तथा समस्त अविद्या और तृष्णाके नाशसे समस्त पदार्थोंका ज्ञान एवं वितृष्णताके सिद्ध होनेसे उसे जगहितैषी, प्रमाणभूत, सन्तानरूपसे सर्वदा स्थित और कल्पनाजालसे रहित बतलाते हुए उसके वर्मविशेषसे शिष्यजनोंके लिये निरन्तर तत्त्वोपदेश करनेकी सम्भावना करते हैं, क्योंकि आप ( सौत्रान्त्रिकों ) के मतमें विचारणीय वास्तविक अर्थको व्यवस्था नहीं होती है। अतएव यह ठोक ही
1. मु 'सुगत' नास्ति । 2. मु स 'सन्तानेन' नास्ति । 3. मु स 'सम्मत' । 4. म 'न सम्भाव्यते' । 5. मु 'सौत्रान्तिकमते'।
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