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कारिका ८४] सुगत-परीक्षा
२३७ यदि तु वेद्यवेदकाकारयोन्तित्वात्तद्विविक्तमेव संवेदनमात्रं परमार्थसत्, इति निगद्यते, तदा तत्प्रचयरूपमेकपरमाणुरूपं वा ? न तावत्प्रचयरूपम्, बहिरर्थपरमाणूनामिव संवेदनपरमाणूनामपि प्रचयस्य विचार्यमाणस्यासम्भवात् । नाऽप्येकपरमाणुरूपम्, सकृदपि तस्य प्रतिभासाभावाबहिर
कपरमाणुवत् । ततो न संवित्परमाणुरूपोऽपि सुगतः सकलसन्तानसंवित्परमाणुरूपाणि चतुरार्यसत्यानि दुःखादीनि परमार्थतः संवेदयते वेद्यवेदकभावप्रसङ्गादिति न तत्त्वतो विश्वतत्त्वज्ञः स्यात्, यतोऽसौनिर्वाणमार्गस्य प्रतिपादकः समनुमन्यते । [सुगतस्य संवृत्त्या विश्वतत्त्वज्ञत्वं मोक्षमार्गोपदेशकत्वं चेति
प्रतिपादने दोषमाह ] $ २०९. स्यान्मतम्-संवृत्त्या वेद्यवेदकभावस्य सद्भावात्सुगतो विश्वतत्त्वानां ज्ञाता श्रेयोमार्गस्य चोपदेष्टा स्तूयते, तत्त्वतस्तदसम्भवादिति, तदप्यज्ञचेष्टितमिति निवेदयति
जैन-तो आप यह बतलाइये कि वह संवेदनप्रचय (अनेक परमाणुओंका समुदाय ) रूप है या एक परमाणुरूप है ? प्रचयरूप तो हो नहीं सकता है क्योंकि बाह्य अर्थपरमाणओंकी तरह संवेदनपरमाणुओंका भी प्रचय विचार करनेपर सम्भव नहीं होता। एक परमाणुरूप भी वह नहीं है क्योंकि एकबार भी उसका प्रतिभास नहीं होता, जैसे बाह्यार्थ एकपरमाणु । अतः ज्ञानपरमाणुरूप भी सुगत समस्त सन्तानोंके ज्ञानपरमाणुरूप दुःख आदि चार आर्य-सत्योंको तत्त्वतः नहीं जानता है, क्योंकि वेद्यवेदकभावका प्रसंग आता है। इस कारण वह परमार्थतः सर्वज्ञ नहीं है, जिससे आप उसे मोक्षमार्गका प्रतिपादक मानते हैं।
$२०९. योगाचार-हम सुगतके वेद्य-वेदकभाव संवृत्तिसे मानते हैं, इसलिये सुगत विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता और मोक्षमार्गका प्रतिपादक कहा जाता है, वास्तवमें तो उसके न वेद्य-वेदकभाव है, न वह सर्वज्ञ है और न मोक्षमार्गका प्रतिपादक है ?
जैन-यह भी आपकी अज्ञतापूर्ण मान्यता है, यह आगे कारिकाद्वारा कहते हैं
1. मु स 'ततोऽपि'। 2. मु स 'येनासौ'।
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