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कारिका ८४]
सुगत-परीक्षा "भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः। हेतुत्वमेव युति ज्ञास्तदाकारार्पणक्षमम् ॥"[प्रमाणावा०६-२४७] इति।
६ २००. अनेन तदुत्पत्तिताप्ययोह्यत्वलक्षणत्वेन व्यवहारिणः प्रत्यभिधानात् । “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता।" [ ] इति ।
२०१. अनेन च तदध्यवसायित्वस्य प्रत्यक्षलक्षणत्वेन वचनमपि न सुगतप्रत्यक्षापेक्षया, व्यवहारिजनापेक्षयैव तस्य व्याख्यानात, सुगतप्रत्यक्षे स्वसंवेदनप्रत्यक्ष इव तल्लक्षणस्यासम्भवात् । यथैव हि स्वसंवेदनप्रत्यक्षं स्वस्मादनुत्पद्यमानमपि स्वाकारमननुकुर्वाणं स्वस्मिन् व्यवसायम
'प्रत्यक्षज्ञान भिन्नसमयवर्तीको कैसे ग्रहण कर सकता है, यदि यह पूछा जाय तो युक्तिज्ञ पुरुष तदाकारके अर्पणमें समर्थ हेतुताको ही ग्राह्यता कहते हैं। तात्पर्य यह कि यद्यपि अर्थके समय ज्ञान नहीं है और ज्ञानके समय अर्थ नहीं है-अर्थ के नाश हो जानेके बाद ही ज्ञान उत्पन्न होता हैअर्थके सद्भावमे नहीं होता है और इसलिये पूर्वक्षण, पूर्वक्षणज्ञानसे भिन्नकालीन है और जब वह भिन्नकालीन है तो वह ग्राह्य कैसे हो सकता है ? तथापि युक्तिके जानकारों का कहना है कि पूर्वक्षण अपना आकार छोड़ जाता है और ज्ञान उसको ग्रहण कर लेता है, यह आकारार्पणरूप हेतुता-युक्ति ही उसकी ग्राह्यता में प्रमाण है।' [
$२००. इस पद्यद्वारा तदुत्पत्ति और ताद्रूप्यको ग्राह्यता ( प्रत्यक्ष ) के लक्षणरूपसे व्यवहारियोंके प्रति कहा है-सुगतके प्रति नहीं। अर्थात् हम व्यवहारियोंके प्रत्यक्षज्ञानके ही तदुत्पत्ति और ताद्रप्य लक्षणरूपसे अभिहित हैं, सुगतप्रत्यक्षके नहीं। तथा 'जहाँ ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक बुद्धिको उत्पन्न करता है वहाँ हो वह प्रमाण है' [ ]।
$२०१. इस पद्यांशद्वारा तदध्यवसायिताको प्रत्यक्षके लक्षणरूपसे कथन करना भी सुगतज्ञानकी अपेक्षासे नहीं है, व्यवहारीजनोंकी अपक्षासे ही है, ऐसा व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि सुगतप्रत्यक्षमें स्वसंवेदन प्रत्यक्षकी तरह उक्त प्रत्यक्षलक्षण ( तदुत्पत्ति, तदाकारता और तदध्यवसायिता ) असम्भव है। स्पष्ट है कि जिसप्रकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपनेसे उत्पन्न न होता हुआ, अपने आकारका अनुकरण न करता हुआ
1. द प्रतौ 'भिन्नेत्यादि' पंक्तिर्नास्ति । 2. स 'व्यवहारजननापेक्ष', मु 'व्यवहारजनापेक्ष' ।
]।
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