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कारिका ८४ ]
सुगत- परीक्षा
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निवृत्ता' परं प्रकर्षे प्रतिपद्यमाना स्वार्थानुमानज्ञान' लक्षणया चिन्तया निर्वृत्तां' चिन्तामयी भावनामारभते । सा च प्रकृष्यमाणा परं प्रकर्ष - पर्यन्तं सम्प्राप्ता योगिप्रत्यक्षं जनयति, ततस्तत्त्वतो विश्वतत्त्वज्ञतासिद्धेः सुगतस्य न तदपेतत्वं सिद्ध्यति यतो निर्वाणमार्गस्य प्रतिपादकः सुगतो न भवेदिति ।
| सुगतमतनिराकरणम् ]
S २०२. तदपि न विचारक्षमम्; भावनाया विकल्पात्मकायाः श्रुतमय्याश्चिन्तामय्याश्चावस्तुविषयाया वस्तुविषयस्य योगिज्ञानस्य जन्मविरोधात् । कुतश्चिदतत्त्वविषयाद विकल्पज्ञानात्तत्त्वविषयस्य ज्ञानस्यानुपलब्धेः । कामशोकभयोन्मादचौर * स्वप्नाद्यपप्लुतज्ञानेभ्यः कामिनीमृतेष्टजनशत्रुसंघातानियतार्थगोचराणां पुरतोऽवस्थितानामिव दर्शनस्या -
श्रुतज्ञानसे उत्पन्न होती है वह श्रुतमयी भावना है। यह श्रुतमयी भावना परमप्रकर्षको प्राप्त होती हुई स्वार्थानुमानात्मक चिन्ताद्वारा जनित चिन्तामयी भावनाको आरम्भ करती है और वह चिन्तामयी भावना बढ़तेबढ़ते अन्तिम प्रकर्षको प्राप्त होकर योगिप्रत्यक्षको उत्पन्न करती है । अतः सुगतके परमार्थतः सर्वज्ञता सिद्ध है और इसलिये उसके सर्वज्ञताका अभाव सिद्ध नहीं होता, जिससे सुगत मोक्षमार्ग का प्रतिपादक न हो, अपितु वह है हो ।
$ २०२. जैन - यह कथन भी विचारसह नहीं है- विचारद्वारा उसका खण्डन हो जाता है, क्योंकि श्रुतमयी और चिन्तामयी भावनाएँ विकल्पात्मक हैं और इसलिये वे अवस्तुको विषय करनेवाली हैं, अतः उनसे वस्तुविषयक योगिज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है । दूसरे, अवस्तुको विषय करनेवाले किसी विकल्पज्ञानसे वस्तुको विषय करनेवाला ज्ञान उपलब्ध नहीं होता । यही कारण है कि काम, शोक, भय, उन्माद, चोर और स्वप्नादि मुक्त ज्ञानोंसे उत्पन्न हुए कामिनी, मृत प्रियजन, शत्रुसमूह और अनियत पदार्थोंको विषय करनेवाले ज्ञान भी, जिनसे वे कामिनी आदि पदार्थ सामने खड़े हुए की तरह दिखते हैं, अपरमार्थभूत पदार्थोंको विषय
1. a 'faq'ar'i
2.
मु 3. द स 'निवृ'तो' | 4. व मु स प्रतिषु 'चोर' |
'ज्ञान' नास्ति ।
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