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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८४ जनयत् प्रत्यक्षमिष्यते कल्पनापोढाभ्रान्तत्वलक्षणसद्धावात्, तथा योगिप्रत्यक्षमपि वर्तमानातीतानागततत्त्वेभ्यः स्वयमनुत्पद्यमानं तदाकारमननुकुर्वत् तदध्यवसायमजनयत् प्रत्यक्ष तल्लक्षणयोगित्वात्प्रतिपद्यते। कथमन्यथा सकलार्थविषयं विधतकल्पनाजालं च सुगतप्रत्यक्ष सिद्धयेत् ? तस्य भावनाप्रकर्षपर्यन्तजत्वाच्च न समस्तार्थजत्वं युक्तम, "भावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानम्" [ न्यायबिन्दु पृ० २० ] इति वचनात् । भावना हि द्विविधा श्रुतमयी चिन्तामयी च। तत्र श्रुतमयी श्रूणमाणेभ्यः परार्थानुमानवाक्येभ्यः समुत्पद्यमानज्ञानेन श्रुतशब्दवाच्यतामास्कन्दता
और अपने में व्यवसाय (निश्चय ) को पैदा न करता हुआ भी प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि उसमें कल्पनापोढपना और अभ्रान्तपनारूप प्रत्यक्षलक्षण मौजद है उसी प्रकार योगिप्रत्यक्ष भी वर्तमान, अतीत और अनागत तत्त्वोंसे उत्पन्न न होता हआ, उनके आकारका अनुकरण न करता हुआ और उनके अध्यवसायको पैदा न करता हुआ प्रत्यक्ष माना जाता है क्योंकि कल्पनापोढपना और अभ्रान्तपनारूप लक्षण उसमें विद्यमान है। यदि ऐसा न हो--विश्व तत्त्वोंसे उत्पन्नादिरूप हो तो सुगतप्रत्यक्ष समस्तार्थविषयक और कल्पनाजालरहित कैसे सिद्ध हो सकेगा ? फलितार्थ यह कि सुगतप्रत्यक्षमें विश्वतत्त्वोंको हम कारण नहीं मानते हैं, क्योंकि कारण माननेकी हालतमें सुगतप्रत्यक्ष उनसे उत्पन्न न हो सकनेसे समस्त पदार्थोंका ज्ञाता सिद्ध नहीं होता। अतएव तदुत्पत्ति, ताप्य और तदध्यवसायिताका जो प्रतिपादन है वह हम लोगोंके प्रत्यक्षज्ञानकी अपेक्षा है, सुगतप्रत्यक्षकी अपेक्षा नहीं। दूसरे सुगतप्रत्यक्ष भावनाके परमप्रकर्षसे उत्पन्न होता है-विश्वतत्त्वोंसे नहीं, इसलिये भी वह समस्त पदार्थजन्य नहीं माना जा सकता है क्योंकि "भावनाके चरम प्रकर्षसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको योगिज्ञान अथवा योगिप्रत्यक्ष कहते हैं।'' [ न्यायबिन्दु पृ० २० ] ऐसा न्यायबिन्दुकार आचार्य धर्मकीर्तिका उपदेश है। प्रकट है कि भावना दो प्रकारको कही गई है-एक श्रुतमयी और दूसरी चिन्तामयी। जो सुने जानेवाले परार्थानुमानवाक्योंसे उत्पन्न एवं श्रुत शब्दसे कहे जानेवाले.
1. मु 'तद्व्यवसाय'। 2. स 'प्रतिपाद्यते'। 3. व 'तथा हि', स तर्हि तत्र'। 4. मु 'ज्ञान' नासिका
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