________________
२१६
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८३ स्वरूपस्य बुद्धयाऽनध्यवसितस्यापि तेन संवेदनात् । यथा च 'बुद्धयाऽ. नध्यवसितमात्मानमात्मा संचेतयते तथा बहिरर्थमपि सञ्चतयताम्, किमनया बुद्धया निष्कारणमुपकल्लितया ? स्वार्थसंवेदकेन पुरुषेण तत्कृत्यस्य कृतत्वात्।।
$ १९५. यदि पुनरर्थसंवेदनस्य कादाचित्कत्वाद् बुद्धयध्यवसायस्त. त्रापेक्ष्यते तस्य स्वकारणबुद्धि कादाचित्कतया कादाचित्कस्यार्थसंवेदनस्य कादाचित्कताहेतुत्वसिद्धेः। बुद्धयध्यवसानपेक्षायां सोऽर्थसंवेदने शश्व. दर्थसंवेदनप्रसङ्गादिति मन्यध्वम् , तदाऽर्थसंवेदिनः पुरुषस्यापि संचेतना कादाचित्का किमपेक्षा स्यात् ? अर्थसंवेदनापेवेति चेत्, किमिदानी.
संचेतना ( अनुभूति ) मानी जाय तो "बुद्धिसे अवसित-जात अर्थको पुरुष संचेतन (अनुभव) करता है" [ ] यह मान्यता नहीं रहती है, क्योंकि बुद्धिसे अज्ञात भी स्वरूप उसके द्वारा जाना जाता है। और जिस प्रकार पूरुष बुद्धिसे अज्ञात (अनध्यवसित) अपने स्वरूपको जानता है उसी प्रकार वह बाह्य पदार्थों को भी जान ले। व्यर्थ में इस बुद्धिको कल्पित करनेसे क्या फायदा ? क्योंकि स्वार्थसंवेदक पुरुषद्वारा उसका कार्य पूरा हो जाता है ।
$ १९५. सांख्य-बात यह है कि बाह्य पदार्थोंका ज्ञान कादाचित्क है-कभी होता है और कभी नहीं होता है, इसलिये उसमें बुद्धिके अध्यवसायको अपेक्षा होतो है और चूँकि बुद्धि का अध्यवसाय अपनी कारणभूत बुद्धिके कादाचित्क होनेसे कादाचित्क है। अतः वह बाह्यपदार्थज्ञानको कादाचिकताका कारण सिद्ध हो जाता है। मतलब यह कि बुद्धिके कादाचित्क होनेसे उसका कार्यरूप बाह्यपदार्थज्ञान भी कादाचित्क है। यदि पुरुषके अर्थसंवेदनमें बुद्धिके अध्यवसायको अपेक्षा न हो तो सदैव अर्थसंवेदनका प्रसंग आवेगा, लेकिन ऐसा नहीं है.-अर्थसंवेदन कादाचित्क है।
जैन-तो यह बतलाइये कि अर्थसंवेदो पुरुषको भी कादाचित्क स्वरूपसंचेतना (अनुभूति) किसको अपेक्षासे होती है अर्थात् उसमें किसको अपेक्षा होती है ?
1. म 'बुद्ध्यनवसित'। 2. मु स 'बुद्ध्यनवसित' । 3. द 'मन्यध्वम्' पाठस्थाने 'अज्ञवत्' पाठः । 4. मु 'पेक्षयेति'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org::