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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ महेश्वरोऽपि ज्ञाता व्यवहर्सव्यो ज्ञातृस्वरूपेण प्रमाणतः प्रतीयमानत्वात् । यद्येन स्वरूपेण प्रमाणतः प्रतीयमानं तत्तथा व्यवहर्त्तव्यम्; यथा सामान्यादिस्वरूपेण प्रमाणतः प्रतीयमानं सामान्यादि, ज्ञातस्त्ररूपेण प्रमाणतः प्रतीयमानश्च महेश्वरः, ततो ज्ञातेति व्यवहर्त्तव्य इति तदर्थमर्थान्तरभूतज्ञानसमवायपरिकल्पनमनर्थकमेव ।
$ १८५. तदेवं प्रमाणबलात्स्वार्थव्यवसायात्मके ज्ञाने प्रसिद्ध महेश्वरस्य ततो भेदैकान्तनिराकरणे च कथञ्चित्स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानादभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, कथञ्चित्तादात्म्यस्यैव समवायस्व व्यवस्थापनात् । तथा च नाम्नि विवादो नार्थे जिनेश्वरस्यैव महेश्वर इति नामकरणात, कथञ्चित्स्वार्थव्यवसात्मक ज्ञानतादात्म्यमृच्छतः पुरुषविशेषस्य जिने
तत्त्वज्ञ माना जाता है, अन्यथा नहीं। अतः ‘महेश्वर' भी ज्ञाताव्यवहारके योग्य है, क्योंकि प्रमाणसे वह ज्ञातास्वरूप प्रतीत होता है. जो जिसरूपसे प्रमाणसे प्रतीत होता है वह उस प्रकारसे व्यवहारके योग्य होता है, जैसे सामान्यादिस्वरूपसे प्रमाणसे प्रतीत हो रहे सामान्यादि । और ज्ञातास्वरूपसे प्रमाणसे प्रतोत है महेश्वर, इसलिये वह ज्ञाताव्यवहारके योग्य है। ऐसी स्थितिमें महेश्वरमें ज्ञाताव्यवहार करनेके लिये भिन्नभूत ज्ञानके समवायकी कल्पना करना सर्वथा निरर्थक है-उससे किसो भी प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती।
__ [ वैशेषिक दर्शनका उपसंहार ] $ १८५. इस प्रकार प्रमाणके बलसे अपने और पदार्थके निश्चायक ज्ञानके प्रसिद्ध हो जानेपर तथा महेश्वरका उससे सर्वथा भेद निराकरण कर देने पर स्वार्थव्यवसायात्मक ( अपने और पदार्थके निश्चायक ) ज्ञानसे महेश्वरका कथंचित् अभेद स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि कथंचित तादात्म्यरूप ही समवाय व्यवस्थित होता है । अतएव नाममें विवाद है, अर्थमें नहीं, कारण जिनेश्वरका ही महेश्वर नाम किया गया है। क्योंकि कथंचित् स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानके तादात्म्यवाले पुरुषविशेषके जिनेश्वरपना निश्चित होता है। तात्पर्य यह कि अब महेश्वर और जिनेश्वरमें कोई अन्तर नहीं रहा। केवल नामभेदका अन्तर है-एकको महेश्वर कहा जाता है और दूसरेको जिनेश्वर । अर्थभेद कुछ नहीं है-दोनों ही स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानसे कथंचित् अभिन्न हैं और इसलिये हम कह
1. मु 'सायात्मज्ञान' ।
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