________________
कारिका ८३ ] कपिल-परीक्षा
२१३ चेतनसंसर्गात्तपचारादेव तच्चेतनमुच्यते स्वरूपतः पुरुषस्यैव चेतनत्वोपगमात् । “चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" [ योगभाष्य १-९ ] इति वचनात्। ततः सिद्धमेवेदं साधनं कर्मराशिविनाशित्वाभावं । साधयति । तस्माच्च विश्ववेदित्वाभावः कर्मराशिविनाशित्वाभावे कस्यचिद्विश्ववेदित्वविरोधात्। ततश्च न प्रधानस्य ज्ञत्वं स्वयमचेतनस्य ज्ञत्वानुपलब्धेः। न चाज्ञस्य मोक्षमार्गोपदेशकत्वं सम्भाव्यत इति प्रधानस्य सर्वमसम्भाव्यमेव, स्वयमचेतनस्य सम्प्रज्ञातसमाधेरपि दुर्घटत्वात् । बुद्धिसत्त्वप्रकर्षस्यासम्भवाद्रजस्तमोमलावरणविगमस्यापि दुरुपपादत्वात् । यदि पुनरचेतनस्यापि प्रधानस्य विपर्ययादबन्धसिद्धेः संसारित्वं तत्त्वज्ञानात्कर्ममलावरणविगमे सति समाधिविशेषाद्विवेकख्यातेः सर्वज्ञत्वं मोक्षमार्गोपदेशित्वं जीवन्मुक्तदशायां विवेकख्यातेरपि निरोधे निर्बीजसमाधेमुक्तत्वमिति कापिलाः मन्यन्ते, तदाऽयं पुरुषः परिकल्प्यमानो'स्वयं प्रधान अचेतन हो है । हाँ, चेतनके संसर्गसे उपचारसे हो उसे चेतन कहा जाता है, स्वरूपसे पुरुषको ही चेतन स्वीकार किया है। कहा भी है-"चैतन्य पुरुषका स्वरूप है" [ योगभाष्य १-९] । अतः उपयुक्त हेतु सिद्ध हो है- असिद्ध नहीं और इसलिये वह प्रधानके कर्मसमहके नाशकपनेके अभावको साधता है। और उससे विश्ववेदीपनेका अभाव सिद्ध होता है, क्योंकि कर्मसमहके नाशकपनेके अभाव में कोई विश्ववेदी उपलब्ध नहीं होता। अतः प्रधान ज्ञ नहीं है, क्योंकि जो स्वयं अचेतन होता है वह ज्ञ उपलब्ध नहीं होता। और अज्ञ मोक्षमार्गका उपदेशक सम्भव नहीं है, इस तरह प्रधानके सब असम्भव ही है। इसके अतिरिक्त, स्वयं अचेतनके सम्प्रज्ञात समाधि भी नहीं बन सकती है। बुद्धिसत्त्वका प्रकर्ष ( केवलज्ञान जैसा उत्कृष्ट ज्ञान ) भी अचेतनके असम्भव है और इसलिये रज तथा तमरूप मलावरणका नाश भी उसके ( अचेतन प्रधानके) नहीं बनता है। ___ सांख्य यद्यपि प्रधान अचेतन है फिर भी उसके विपर्ययसे बन्ध सिद्ध होनेमे संसारीपना, तत्त्वज्ञानसे कर्मरूप मलावरणके नाश हो जानेपर समाधिविशेषसे विवेकख्याति ( प्रकृति-पुरुषका भेदज्ञान ) और विवेकख्यातिसे सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गोपदेशिता ये जीवन्मुक्तदशामें और विवेकख्यातिके भी नाश हो जानेपर निर्बीजसमाधिसे मुक्तपना, ये सब ही बातें उपपन्न हो जाती हैं और यही हमारा मत है ?
1. द स 'कल्पमानो' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org