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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७९ सर्वार्थज्ञानसंसर्गातस्य सर्वज्ञत्वपरिकल्पनमपि न युक्तम्', आकाशादेरपि सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । तथाविधज्ञानपरिणामाश्रयप्रधानसंसर्गस्याविशेषात् । तदविशेषेऽपि कपिल एव सर्वज्ञश्चेतनत्वान्न पुनराकाशादिरित्यपि न युज्यते, तेषां2 मुक्तात्मनश्चेतनत्वेऽपि ज्ञानसंसर्गतः सर्वज्ञत्वानभ्युपगमातू । सबीजसमाधिसम्प्रज्ञातयोगकालेऽपि सर्वज्ञत्वविरोधात्।
१८८. स्यान्मतम-न मुक्तस्य ज्ञानसंसर्गः सम्भवति, तस्या सम्प्रज्ञातयोगकाल एव विनाशात् । “तदा द्रष्टु' स्वरूपेऽवस्थानम्" [ योगदर्श० १-३ ] इति वचनात् । [ केवलं तदा संस्कारविशेषोऽवशिष्यते ], मुक्तस्य तु संस्कारविशेषस्यापि विनाशात्, असम्प्रज्ञातस्यैव' मौजूद है, इसलिये उसके सर्वज्ञता बन जाती है ?
जैन-नहीं, आकाशादिकके भी सर्वज्ञताका प्रसंग आवेगा, क्योंकि सर्वार्थविषयक ज्ञानपरिणामके आश्रयभूत प्रधानका संसर्ग आकाशादिकके साथ भी विद्यमान है।
सांख्य--यह ठीक है कि सर्वार्थविषयक ज्ञानपरिणामके आश्रयभत प्रधानका संसर्ग आकाशादिकके साथ भी है तथापि कपिल ही सर्वज्ञ है, क्योंकि वह चेतन है, आकाशादिक नहीं ?
जैन-यह मान्यता भी आपकी युक्त नहीं है, क्योंकि आपके यहाँ मक्तात्माओंको चेतन होनेपर भी ज्ञानसंसर्गसे सर्वज्ञ स्वीकार नहीं किया है। अन्यथा सबोज समाधिसम्प्रज्ञातयोगकालमें भी सर्वज्ञता नहीं बन सकेगी।
१८८. सांख्य-हमारा मत यह है कि मुक्तजीवके ज्ञानसंसर्ग सम्भव नहीं है, क्योंकि वह असम्प्रज्ञातयोगकाल (निर्बीजसमाधिके समय) में हो नष्ट हो जाता है। "उस समय (असम्प्रज्ञातयोगकालमें ) द्रष्टा अपने चैतन्य स्वरूपमें अवस्थित रहता है" ( योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र तीसरा ) ऐसा महर्षि पातञ्जलिका वचन है । [ उस समय केवल उसका संस्कार शेष रहता है ] मुक्तजीवके तो संस्कारविशेष भी विनष्ट हो
1. द ‘मप्ययुक्तम् । 2. मु (कपिलानां मतं)' इत्यधिकः पाठः । 3. द 'मुक्तवत्' । 4. मु 'तस्य सम्प्रज्ञा' । 5. मु (पुरुषस्य)' इत्यधिकः पाठः । 6. द 'शक्तिविशेष' । 7. द ‘स्य च संस्कारशेषता' ।
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