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कारिका ३६ ] ईश्वर-परीक्षा
१२७ $ १२१. स्यादाकृतम्-चेतना ज्ञानं तदधिष्ठितत्वं सकलकारकान्तराणामचेतनत्वेन हेतुना साध्यते। तच्च ज्ञानं समस्तकारकशक्तिपरिच्छेदकं नित्यं गुणत्वादाश्रयमन्तरेणासम्भवात् स्वाश्रयमात्मान्तरं साधयति । स नो महेश्वर इति; तदप्ययुक्तम्; संसार्यात्मनां ज्ञानरपि स्वयंचेतनास्वभावैरधिष्ठितस्य शभाशुभकर्मकलापस्य 'तत्सहकारिकारणक दम्बस्य च तन्वादिकार्योत्पत्ती व्यापारसिद्धरीश्वरज्ञानाधिष्ठानपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगात् । तदन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव तद्व्यवस्थापनात् ।
६ १२२. अथ मतमेतत्-संसार्यात्मनां विज्ञानानि विप्रकृष्टार्थाइसलिये वे अपने सुख और दुःखको भोगनेके लिये ईश्वरकी, जो प्रभु और सर्वज्ञ है, प्रेरणासे स्वर्ग और नरकको क्रमशः जाते हैं ।
$ १२१. वैशेषिक-हमारा आशय आप इसप्रकार समझिये-जो चेतना है वह ज्ञान है और उस ज्ञानसे अधिष्ठितपना समस्त कारकोंके 'अचेतनपना' हेतुद्वारा सिद्ध करते हैं। तात्पर्य यह कि 'अचेतनपना' हेतुद्वारा महेश्वरज्ञानको तदतिरिक्त समस्त कारकोंका अधिष्ठाता मानते हैं । और उसे समस्त कारकोंकी शक्तिका परिच्छेदक एवं नित्य स्वीकार करते हैं। चूंकि वह गुण है, इसलिए वह आश्रयके बिना नहीं रह सकता, अतः अपने आश्रयभूत आत्मान्तरको-हम लोगोंकी आत्माओंसे विशिष्ट आत्माको सिद्ध करता है। वही हमारा महेश्वर है ? __ जैन-आपका यह आशय भी युक्त नहीं है, क्योंकि संसारी आत्माओंके ज्ञानोद्वारा भी, जो स्वयं चेतनास्वभाव हैं, अधिष्ठित अच्छे-बुरे कर्म और उनके सहायक सहकारी कारण शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें व्यापार ( प्रवृत्ति ) करते हुए प्रतीत होते हैं और इसलिए ईश्वरज्ञानको उनका अधिष्ठाता कल्पित करना सर्वथा अनावश्यक और व्यर्थ है। संसारी आत्माओंके ज्ञानोद्वारा अधिष्ठित ( संचालित एवं प्रेरित ) उनके अच्छे-बरे कर्मादिके होनेपर शरीरादिककी उत्पत्ति होने और उनके न होनेपर उनकी ( शरीरादिककी) उत्पत्ति न होनेसे उन्हीं ( संसारी जीवोंके ज्ञानोंसे अधिष्ठित अच्छे-बुरे कर्मादि) का अन्वय-व्यतिरेक कार्यो में सिद्ध होता है-महेश्वर अथवा महेश्वरज्ञानका नहीं।
१२२. वैशेषिक-हमारा मत यह है कि संसारी आत्माओंके ज्ञान विप्रकृष्टकाल, देश और स्वभावको अपेक्षा दूरवर्ती-पदार्थोंको विषय न
1. स 'वा' इत्यधिकः । 2. म 'तत्सहकारिकदम्बकस्य' । स 'तत्सहकारणकदम्बकस्य' ।
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