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कारिका ४२]
ईश्वर-परीक्षा लिङ्गो यः स एव समवाय इष्यते । न चान्तरालाभावो ग्रामवृक्षाणां सम्बन्ध इति न तेन व्यभिचारः। तथापि 'इहाऽऽकाशे शकुनिः' इति इहेदप्रत्ययेन संयोगसम्बन्धमात्रनिबन्धनेन व्यभिचार इत्याधाराधेयभूतानामिति निगद्यते। न हि यथाऽवयवावयव्यादीनामाधाराधेयभूतत्वमुभयोः प्रसिद्ध तथा शकुन्याकाशयोराधाराधार्यायोगात् । आकाशस्य सर्वगतत्वेन शकुनेरुपर्यपि भावादधस्तादिवेति न तत्रेहेदंप्रत्ययेन व्यभिचारः। नन्वाकाशस्यातीन्द्रियत्वात्तत्रास्मदादीनामिहेदंप्रत्ययस्यासम्भवात् कथं तेन व्यभिचारचोदना साधीयसी?; इति न मन्तव्यम्; कुतश्चिलिङ्गादनुमितेऽप्याकाशे श्रुतिप्रसिद्ध वा कस्यचिदिहेदमिति प्रत्ययाविरोधात् । तत्र भ्रान्तेन वा केषाञ्चदिहेदमिति प्रत्ययेन व्यभिचार
कहा गया है । यथार्थतः ‘इहेदं' प्रत्ययसे अवगत होनेवाले सम्बन्धका नाम समवाय है और अन्तरालाभाव ग्राम तथा वृक्षोंका कोई सम्बन्ध नहीं हैकोई भी विवेकी अन्तरालके अभावको सम्बन्ध नहीं मानता और इसलिए 'सम्बन्ध' कहनेसे अन्तरालाभावको लेकर होनेवाले 'इस गाँवमें वक्ष हैं' इस प्रत्ययके साथ समवायका लक्षण अतिव्याप्त नहीं है। 'सम्बन्ध' विशेषण कहनेपर भी 'इस आकाशमें पक्षी है' इस संयोगनिमित्तक 'इहेदं' प्रत्ययके साथ उक्त समवायलक्षणकी अतिव्याप्ति होती है। अतः 'आधाधिारभूत' यह विशेषण कहा जाता है। निस्सन्देह जिस प्रकार अवयवअवयवो आदिमें आधाराधेयभाव वैशेषिकों और जैनों के प्रसिद्ध है उस प्रकार आकाश तथा पक्षीमें आधाराधेयभाव प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि उनमें आधाराधेयभाव अनुपपन्न है। आकाश सर्वगत ( व्यापक ) होनेसे वह पक्षोके ऊपर भी नीचेकी तरह विद्यमान है। इसलिए उक्त विशेषण देनेसे आकाश में होनेवाले 'इहेदं' प्रत्ययके साथ समवायलक्षणकी अतिव्याप्ति नहीं है । यदि कहा जाय कि आकाश तो अतीन्द्रिय है, उसमें हम लोगोंको 'इहेदं' प्रत्यय नहीं हो सकता है और इसलिए उसके साथ अतिव्याप्तिकथन सम्यक नहीं है, तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि किसी लिंगसे अनुमित हुए-अनुमानसे जाने गये आकाशमें अथवा, श्रुतिप्रसिद्ध आकाशमें किसीको 'इहेदं प्रत्यय हो सकता है- उसके होनेमें कोई विरोध नहीं है।
1. म स 'रौत्तराधेया'। 2. मु 'त्तदस्मदा। 3. द 'च'।
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