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कारिका ४२ ] ईश्वर-परीक्षा
१४१ यतसिद्धानामपि सम्बन्धस्य विषयविषयिभावस्य सिद्धेः कुतः समवायसिद्धिः ? न ह्यात्मनीच्छादीनां ज्ञानमयुतसिद्धं न भवति । तथाऽहमिति ज्ञानम', आधाराधेयभावस्याप्यत्र भावात् । न चाहमिति प्रत्ययस्यात्मविषयस्यायुतसिद्धस्यात्माधारस्य विषयविषयिभावोऽसिद्ध इति कुतस्तयोः समवाय एव सिद्ध्येत् ?, इति न वक्तव्यम्; आधाराधेयभूतानामेवायतसिद्धानामेवेति चावधारणात्। वाच्यवाचकभावो हि यत. सिद्धानामनाधाराधेयभूतानां च प्रतीयते विषयविषयिभाववत् । ततोऽनेनानवधारितविषयेण न व्यभिचारः सम्भाव्यते।
१३३. नन्वेवमयुत सिद्धानामेवेत्यवधाणात् व्यभिचाराभावादाधाराधेयभूतानामिति वचनमनर्थकं स्यात्, आधाराधेयभूतानामेवेत्यव
शङ्का-जो आधाराधेयस्वभाव हैं और अयुतसिद्ध हैं उनमें विषयविषयीभाव सम्बन्ध सिद्ध है, तब समवायकी सिद्धि कैसे हो सकती है ?
और यह कहा नहीं जा सकता कि आत्मामें इच्छादिकोंका ज्ञान अयुतसिद्ध नहीं है, क्योंकि वह स्पष्टतः अयुतसिद्ध है। तथा 'मैं हूँ' इस ज्ञानमें आधाराधेयभाव भी मौजूद है। अतएव 'मैं हूँ' इस प्रत्ययमें, जो आत्मविषयक है अयतसिद्ध है, आत्मा जिसका आधार है, विषय-विषयीभाव असिद्ध नहीं है। तव उनमें समवाय हो कैसे सिद्ध होगा ? अर्थात् नहीं, उनमें तो विषय-विषयीभाव सम्बन्ध सिद्ध है ?
समाधान-यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि हमने 'आधाराधेयभूतोंके ही' और 'अयतसिद्धोंके ही' ऐसा अवधारण प्रतिपादन किया है। निश्चय ही वाच्य वाचकभाव युतसिद्धों और आधाराधेयभावरहितोंके भो प्रतीत होता है, जैसे विषय-विषयीभाव । अतः इस अनवधारित विषयविषयीभावके साथ अतिव्याप्ति नहीं है।
१३३. शङ्का-यदि ऐसा है तो 'अयुतसिद्धोंक ही' ऐसा अवधारण करनेसे अतिव्याप्तिका अभाव हो जाता है, फिर 'आधाराधेयभूतोंके ही' यह कहना व्यर्थ है। जैसे 'आधाराधेयभूतोंके ही' ऐसा अवधारण होनेपर
1. द 'ज्ञानमेव' । 2. द 'भावासिद्ध'। 3. द 'नत्वे'। 4. द 'व्यभिचाराभावात्' इति नास्ति ।
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