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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ६४-६८ इहेति प्रत्ययोऽप्येष शङ्करे न तु खादिषु । इति भेदः कथं सिद्ध्येन्नियामकमपश्यतः ॥६४॥ न चाचेतनता तत्र सम्भाव्येत नियामिका । शम्भावपि तदास्थानात्खादेस्तदविशेषतः ॥६५॥ नेशो ज्ञाता न चाज्ञाता स्वयं ज्ञानस्य केवलम् । समवायात्सदा ज्ञाता यद्यात्मैव स किं स्वतः ॥६६॥ नाऽयमात्मा न चानात्मा स्वात्मत्वसमवायतः । सदात्मैवेति चेदेवं द्रव्यमेव स्वतोऽसिधत् ॥६७॥ नेशो द्रव्यं न चाद्रव्यं द्रव्यत्वसमवायतः ।
सर्वदा द्रव्यमेवेति यदि सन्नेव स स्वतः ॥६८॥ महेश्वरमें है, आकाशमें क्यों नहीं ? यदि माना जाय कि 'इसमें यह' इस प्रकारका प्रत्यय महेश्वरमें होता है, आकाशादिकमें नहीं और इसलिये महेश्वरज्ञानका समवाय महेश्वरमें है, आकाशमें नहीं, तो इस प्रकार का भेद कैसे सिद्ध हो ? क्योंकि उक्त प्रत्ययका नियामकनियमन करनेवाला दृष्टिगोचर नहीं होता। तात्पर्य यह कि उक्त प्रत्यय महेश्वरकी तरह आकाशमें भी क्यों नहीं होता? क्योंकि नियामक तो है नहीं । अगर कहा जाय कि उक्त प्रत्ययमें अचेतनपना नियामक है अर्थात् आकाश अचेतन है इसलिये उसमें उक्त प्रत्यय नहीं हो सकता है तो वह अचेतनपना तो महेश्वरमें भी मौजूद है और इसलिये उसके आकाशादिकसे कोई विशेषता नहीं है। मतलब यह कि वैशेषिकोंके यहाँ चेतनाके समवायसे हो महेश्वरको चेतन माना है स्वतः तो उसे अचेतन ही माना है। अगर यह कहा जाय कि महेश्वर स्वयं न ज्ञाता ( चेतन ) और न अज्ञाता ( अचेतन ) है। केवल ज्ञानके समवायसे सदा ज्ञाता है, तो बतलायें वह स्वतः क्या है ? यदि वह स्वतः आत्मा माना है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि आत्माको भी आत्मत्वके समवायसे आत्मा माना है । यदि कहें कि महेश्वर न आत्मा है और न अनात्मा । केवल अपने आत्मत्वके समवायसे सदा आत्मा है तो पूनः प्रश्न उठता है कि वह स्वतः क्या है ? यदि स्वतः द्रव्य है तो वह स्वतः द्रव्य भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि द्रव्यत्वके समवाय
1. द 'नवाज्ञाता'। 2 द स 'द्धत' ।
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