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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५९ समवायश्च विशेषणविशेष्यभावहेतुः सम्प्रतीयते, तस्य तद्भाव एव भावात्, इति न मन्तव्यम्; तदभावेऽपि विशेषणविशेष्यभावस्य सद्भावात् धर्ममिवभावाभाववद्वा । न हि धर्मर्धामणोः संयोगः, तस्य द्रव्यनिष्ठत्वात् । नापि समवायः परैरिष्यते, समवायतदस्तित्वयोः समवायान्तरप्रसङ्गात् । तथा न भावाभावयोः संयोगः समवायो वा परिष्टः, सिद्धान्तविरोधात् । तयोविशेषणविशेष्यभावस्तु तैरिष्टो दृष्टश्च, इति न संयोगसमवायाभ्यां विशेषणविशेष्यभावो व्याप्तस्तेन तयोर्याप्तत्वसिद्धः । न हि विशेषणविशेष्यभावस्याभावे कयोश्चित्संयोगः समवायो वा व्यवतिष्ठते। क्वचिद्विशेषणविशेष्यभावाविवक्षायां तु संयोगसमवायव्यवहारो न विशेषणविशेष्यभावस्याध्यापकत्वं व्यवस्थापयितु. मलम् । सतोऽप्यर्थित्वादेविवक्षानुपपत्तेापकत्व प्रसिद्धः। ततः आदिमें विद्यमान संयोग और समवाय विशेषणविशेष्यभावके जनक अच्छी तरह प्रतीत होते हैं, क्योंकि वह संयोग और समवायके होनेपर ही होता है। अतः विशेषणविशेष्यभाव संयोग और समवायको बिना माने नहीं बन सकता है?
जैन-आपकी यह मान्यता ठोक नहीं है, क्योंकि संयोग और समवायके अभावमें भी विशेषणविशेष्यभाव पाया जाता है। जैसे धर्म और धर्मी तथा भाव और अभावमें वह उपलब्ध होता है। प्रकट है कि धर्मधर्मीमें न संयोग है क्योंकि वह द्रव्य-द्रव्य में होता है और न उनमें समवाय है, अन्यथा समवाय और उसके अस्तित्वमें अन्य समवायका प्रसंग आवेगा। तथा भाव और अभावमें भी वैशेषिकोंने न संयोग माना है और न समवाय । अन्यथा, सिद्धान्त-विरोध आयगा । लेकिन उनमें उन्होंने विशेषण. विशेष्यभाव अवश्य स्वीकार किया है और वह देखा भी जाता है। अतः संयोग और समवायके साथ विशेषणविशेष्यभावकी व्याप्ति नहीं है किन्तु विशेषणविशेष्यभावके साथ संयोग और समवायकी व्याप्ति है। यथाथ में विशेषणविशेष्यभावके बिना न तो किन्हींमें संयोग प्रतिष्ठित होता है और न समवाय । यह दूसरी बात है कि कहीं विशेषणविशेष्यभावकी विवक्षा न होनेपर संयोग और समवायका व्यवहार होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह वहाँ नहीं है--अव्यापक है, क्योंकि विद्यमान रहनेपर भी प्रयोजनादि न होनेसे विवक्षा नहीं होती है और इसलिये उसमें
1. मु स 'द्धि'। 2. द 'त्वाप्र' ।
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