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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ स्याद्वादिभिः प्रतिषेधे तेषां व्याघातो न भवेदिति चेत्, न; तैः कथञ्चित्सस्वासत्त्वयोविधानात् । सर्वथासत्त्वासत्त्वे हि कथञ्चित्सत्वासत्त्वव्यवच्छेदेनाभ्युपगम्येते । सर्वथासत्त्वस्य कञ्चित्सत्त्वस्य व्यवच्छेदेन व्यवस्थानात् । असत्त्वस्य च कथञ्चिदसत्त्वव्यवच्छेदेनेति सर्वथासत्त्वस्य प्रतिषेधे कञ्चित्सत्त्वस्य विधानात् । सर्वथा चासत्त्वस्य निषेधे कथञ्चिद
सत्त्वस्य विधिः, इति कथं सर्वथासत्त्वासत्त्वप्रतिषेधे स्याद्वादिनां व्याघातो दुरुत्तरः स्थात् ? सर्वथैकान्तवादिनामेव तस्य दुरुत्तरत्वात् ।
६१८० एतेन द्रव्यत्वाद्रव्यत्वयोरात्मत्वानात्मत्वयोश्चेतनत्वाचेतनत्वयोश्च परस्परव्यवच्छेदरूपयोयुगपत्प्रतिषेधे व्याघातो दुरुत्तरः प्रतिपाऔर न असत् है, क्योंकि सत्का प्रतिषेध करनेपर असत्का विधान अवश्य होगा और असत्का प्रतिषेध करनेपर सत्का विधान होगा-दोनोंका प्रतिषेध कदापि सम्भव नहीं है।
वैशेषिक-यदि ऐसा है तो फिर आप ( जैन-स्याद्वादी) लोग जब सर्वथा सत्ता और असत्ताका प्रतिषेध करते हैं तब आपके यहाँ क्यों विरोध नहीं आवेगा?
जैन-नहीं, हम लोग कथंचित् सत्ता और कथंचित् असत्ताका विधान करते हैं। प्रगट है कि सर्वथा सत्ता और सर्वथा असत्ता कथंचित् सत्ता और कथंचित् असत्ताके व्यवच्छेदरूपसे स्वीकार की जाती हैं। सर्वथा सत्ता कथंचित् सत्ताके व्यवच्छेदरूपसे और सर्वथा असत्ता कथंचित् असत्ताके व्यवच्छेदरूपसे व्यवस्थापित होती हैं। इसलिये सर्वथा सत्ताका प्रतिषेध करनेपर कथंचित् सत्ताका विधान होता है और सर्वथा असत्ताका निषेध करनेपर कथंचित् असत्ताकी विधि होती है। इस तरह सर्वथा सत्ता और सर्वथा असत्ताका प्रतिषेध करनेपर हमलोगों ( स्याद्वादियों-कथंचितकी मान्यताको स्वीकार करनेवालों ) के अपरिहार्य अथवा दुष्परिहार्य विरोध कैसे आ सकता है ? अर्थात् नहीं आ सकता है, वह सर्वथा एकान्तवादियोंके ही दुष्परिहार्य है-उनके यहाँ ही उसका परिहार सर्वथा असम्भव है। हम अनेकान्तवादियोंके तो उक्त प्रकारसे उसका परिहार हो जाता है। अतः सर्वथा सत्ता और असत्ताके प्रतिषेध करनेमें हमारे यहाँ विरोध नहीं आता।
$ १८०. इस कथनसे द्रव्यपने और अद्रव्यपने, आत्मपने और अनात्मपने तथा चेतनपने और अचेतनपनेका, जो परस्पर व्यवच्छेदरूप हैं,
1. मु 'त्सत्त्व' ।
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