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कारिका ७७ ]
ईश्वर - परीक्षा
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शब्देन विषाणित्वादेर्भावस्याभिधानात् इति तदप्यनुपपन्नम् ; तथोपचारादेव सत्प्रययप्रसङ्गात् पुरुषे यष्टिसम्बन्धाद्यष्टिरिति प्रत्ययवत् । यदि पुनर्यष्टिपुरुषयोः संयोगात्पुरुषो यष्टिरिति ज्ञानमुपचरितं युक्तं न पुनर्द्रव्यादौ सदिति ज्ञानम्, तत्र सरवस्य समवायात् इति मतम्; तदाऽवयवेष्ववयविनः समवायादवयविव्यपदेशः स्यात् न पुनरवयवव्यपदेशः । द्रव्ये च गुणस्य समवायाद् गुणव्यपदेशोऽस्तु क्रियासमवायाक्रियाव्यपदेशस्तथा च न कदाचिदवयवेष्ववयव प्रत्ययः गुणिनि गुणिप्रत्ययः क्रियावति क्रियावत्प्रत्ययश्चोपपद्येतेति महान् व्याघातः पदार्थान्तरभूत सत्तासमवायवादिनामनुषुज्येत ।
$ १८४. तदेवं स्वतः सत एवेश्वरस्य सत्त्वसमवायोऽभ्युपगन्तव्यः; कथञ्चित्सदात्मतया परिणतस्यैव सत्त्वसमवायस्योपपत्तेः, अन्यथा प्रमाणेन
आदि वाची शब्द के द्वारा विषाणित्वादिक भावका कथन होता है । मतलब यह कि यद्यपि 'सत्' शब्द सत्ताविशिष्टों - भाववानों का बोधक है फिर भी वह सत्ता - भावका भी बोधक है । इसलिये सत्के सम्बन्ध से 'द्रव्यादिक हैं' ऐसा प्रत्यय उपपन्न हो जाता है ।
जैन - यह भी आपका अभिमत युक्त उपचार से ही सत्प्रत्ययका प्रसङ्ग आवेगा । यष्टिका प्रत्यय होता है ।
वैशेषिक - यष्टि और पुरुषमें तो संयोग सम्बन्ध है, इसलिये 'पुरुष यष्टि है' यह ज्ञान उपचरित मानना योग्य है । किन्तु द्रव्यादिकमें जो सत्का ज्ञान होता है उसे उपचरित मानना युक्त नहीं है, क्योंकि द्रव्यादिकमें सत्ताका समवाय है - संयोग नहीं है ?
जैन - तो अवयवोंमं अवयवीका समवाय होनेसे 'अवयवी' का व्यपदेश होना चाहिये, न कि 'अवयव' व्यपदेश । इसी तरह द्रव्यमें गुणका समवाय होनेसे 'गुण' व्यपदेश और क्रियाका समवाय होनेसे 'क्रिया' व्यपदेश होना चाहिए । ऐसी दशा में अवयवोंमें अवयवप्रत्यय, गुणीमें गुणोप्रत्यय क्रियावान् में क्रियावान्प्रत्यय कभी नहीं बन सकेगा, इस प्रकार सत्ता और समवायको सर्वथा भिन्न माननेवालोंके महान् सिद्धान्तविरोध आता है ।
$ १८४. अतः स्वयं सत् महेश्वरके ही सत्ताका समवाय स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि जो कथंचित् सत्स्वभावसे परिणत है उसीके सत्ताका
1. व 'तदप्यनुपपत्तेः' । 2. मु ' वयविष्ववयवि' |
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नहीं है, क्योंकि इस तरह जैसे यष्टिके सम्बन्धसे पुरुष में
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