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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ७७
रणस्यायोगात् । सत्तावद्रव्यम्, सत्तावान् गुणः, सत्तावत्कर्म, इति सत्तासम्बन्धनिबन्धनस्य' प्रत्ययस्य प्रसङ्गात् । न पुनः सद्द्रव्यम्, सत् गुणः, सत्कर्मेति प्रत्ययः स्यात् । न हि घण्टासम्बन्धाद् गवि घण्टेति ज्ञानमनुभूयते, घण्टावान्निति ज्ञानस्य तत्र प्रतीतेः । यष्टिसम्बन्धात्पुरुषो यष्टिरिति प्रत्ययदर्शनात्तु सत्तासम्बन्धाद् द्रव्यादिषु सत्तेति प्रत्ययः स्यात्, भेदेऽभेदोपचारान्न पुनः सदिति प्रत्ययः । तथा चोपचाराद्रव्यादीनां सत्ताव्यपदेशो न पुनः परमार्थतः सिद्ध्येत् ।
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$ १८३. स्यान्मतम् — सत्तासामान्यवाचकस्य सत्ताशब्दस्येव सच्छब्दस्यापि सद्भावात्सत्सम्बन्धात्सन्ति द्रव्यगुणकर्माणीति व्यपदिश्यन्ते, भावस्य भाववदभिधायिनापि शब्देनाभिधानप्रसिद्धेः । विषाणी ककुद् - मान् प्रान्तेवालधिरिति गोत्वे लिङ्गमित्यादिवत् विषाण्यादिवाचिना भिन्नभूत सत्तासम्बन्ध के बलसे 'सत्' इस प्रकारका सामान्यप्रत्यय कदापि नहीं बन सकता है । अन्यथा 'सत्तावान् द्रव्य', 'सत्तावान् गुण' और 'सत्तावान् कर्म' इस प्रकारका सत्तासम्बन्धनिमित्तक प्रत्यय प्रसक्त होगा, न कि 'सत् द्रव्य', 'सत् गुण' और 'सत् कर्म' इस तरहका प्रत्यय होगा । प्रकट है कि घण्टा सम्बन्धसे गाय में 'घण्टा' ऐसा ज्ञान नहीं होता, किन्तु 'घण्टावान्' ऐसा ज्ञान होता है। यदि कहें कि यष्टिके सम्बन्धसे 'पुरुष यष्टि है' ऐसा प्रत्यय देखा जाता है, अतः उक्त दोष नहीं है, तो सत्ता के सम्बन्धसे द्रव्यादिकों में 'सत्ता' ऐसा ज्ञान होना चाहिये, न कि 'सत्' ऐसा ज्ञान होना चाहिये, क्योंकि भेदमें अभेदका उपचार मान लिया गया है । ऐसी दशा में द्रव्यादिकोंके सत्ताका व्यपदेश उपचारसे सिद्ध होगा, परमार्थतः नहीं ।
$ १८३. वैशेषिक - हमारा अभिमत यह है कि जिस प्रकार सत्ताशब्द सत्तासामान्यका वाचक है उसी तरह 'सत्' शब्द भी सत्तासामान्यका वाचक है । अतः सत् के सम्बन्धसे 'द्रव्य, गुण, कर्म सत् हैं' ऐसा व्यपदेश होता है | भाववान् वाची शब्दके द्वारा भी भावका कथन होता है । 'विषाण ( सींग ) वाली, ककुदवाली, पूंछवाली ( पूँछके अन्तमें विशिष्ट वालोंवाली ) ' ये गायपने में लिङ्ग हैं' इत्यादिकी तरह विपाणी
1. मु स सत्तासम्बन्धस्य' ।
2. द 'प्रतिपत्तिः' ।
3. द 'सद्भावसम्बन्धा' ।
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