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कारिका ६०-६३] ईश्वर-परोक्षा
१६५ संयोगः समवायो वा अन्यो वाऽविनाभावादिः सम्बन्धस्तस्यैव विशेषणविशेष्य भावस्य विशेषोऽस्तु ।
[समवायस्य स्वतन्त्रत्वे सर्वथैकत्वे च दूषणप्रदर्शनम् ]
१५१. ननु च समवायस्य स्वतन्त्रत्वादेकत्वाच्च कथमसौ तद्विशेषः स्थाप्यते ? इति चेत् ;न; समवायस्य स्वतन्त्रत्वे सर्वथैकत्वे च दोषसद्भावात् । तथा हि
स्वतन्त्रस्य कथं तावदाश्रितत्वं स्वयं मतम् । तस्याश्रितत्ववचने' स्वातन्त्र्यं प्रतिहन्यते ॥६॥ समवायिषु सत्स्वेव समवायस्य वेदनात् । आश्रितत्वे दिगादोनां मूर्तद्रव्याधितिर्न किम् ॥६१॥ कथं चानाश्रितः सिद्ध्येत्सम्बन्धः सर्वथा क्वचित् । स्वसम्बन्धिषु येनातः सम्भवेन्नियतस्थितिः ॥६२॥ एक एव च सर्वत्र समवायो यदीष्यते ।
तदा महेश्वरे ज्ञानं समवैति न खे कथम् ॥६३॥ व्यापकता प्रसिद्ध है । अतः संयोग या समवाय अथवा अविनाभाव आदि अन्य सम्बन्ध उसी विशेषणविशेष्यभावके भेद मानना चाहिये।
१५१. वैशेषिक-समवाय स्वतन्त्र और एक है वह उसका भेद कैसे माना जा सकता है ?
जैन-नहीं, समवायको स्वतन्त्र और सर्वथा एक मानने में दोष आते हैं। वह इस प्रकार है_ 'यदि समवाय स्वतन्त्र है तो उसमें आप लोगोंने आश्रितपना कैसे कहा है ? और उसमें आश्रितपना कहनेपर वह स्वतन्त्र नहीं बन सकता है । यदि कहा जाय कि समवायिओंके होनेपर ही समवायका ज्ञान होता है, इसलिये समवायमें आश्रितपना कहा जाता है, तो इस तरह दिगादिक मूर्तद्रव्योंके आश्रित क्यों नहीं हो जायेंगे ? दूसरे, यदि समवाय परमार्थतः अनाश्रित है, क्योंकि उपचारसे ही उसमें आश्रितपना माना गया है तो वह सम्बन्ध कैसे सिद्ध हो सकता है ? जिससे कि उसकी कहीं अपने सम्बधियोंमें नियत स्थिति-वृत्ति सम्भव हो और चूँकि वह अनाश्रित है इसलिये उससे उसके सम्बन्धियोंकी निश्चित स्थिति नहीं बन सकती है । तथा यदि एक ही समवाय सब जगह कहा जाय तो महेश्वरज्ञानका समवाय
1. मु तस्याश्रितत्वे वचने' ।
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