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कारिका ७७ ] ईश्वर-परीक्षा यतस्तन्त्रविरोधः स्यात्, किन्तूपचारात् । निमित्तं तूपचारस्य समवायिषु सत्सु समवायज्ञानम्, समवायिशून्ये देशे समवायज्ञानासम्भवात् । परमार्थतस्तस्याश्रितत्वे स्वाश्रयनाशाद्विनाशप्रसङ्गात्, गुणादिवत्, इति ।
$ १५४. तदसत्; दिगादीनामप्येवमाश्रितत्वप्रसङ्गात्। मूर्तद्रव्येषु सत्सूपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु दिग्लिङ्गस्येदमतः पूर्वेणेत्यादिप्रत्ययस्य काललिङ्गस्य च परत्वापरत्वादिप्रत्ययस्य सद्भावात् मूर्तद्रव्याश्रितत्वोपचारप्रसङ्गात्। तथा च अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः' इति व्याधातः, नित्यद्रव्यस्यापि दिगादेरुपचारादाश्रितत्वसिद्धेः। सामान्यस्यापि परमार्थतोऽनाश्रितत्वमनुषज्यते, स्वाश्रयविनाशेऽपि विनाशाभावात, समवायवत् । तदिदं स्वाभ्युपगमविरुद्धं वैशेषिकाणामुपचारतोऽपि समवायस्याश्रितत्वं स्वातन्त्र्यं वा।
$ १५५. किञ्च, समवायो न सम्बन्धः, सर्वथाऽनाश्रितत्वात्। यो यः मानते, जिससे सिद्धान्तविरोध हो, किन्तु औपचारिक धर्म मानते हैं । और उपचारका कारण समवायिओंके होनेपर समवायका ज्ञान होना है, क्योंकि जिस जगह समवायी नहीं होते वहाँ समवायका ज्ञान नहीं होता। यदि वास्तवमें उसके ( समवायके ) आश्रितपना कहा जाय तो आश्रपके नाशसे उसका भी नाश मानना होगा, जैसे गुणादिक ?
१५४. जैन-आपका यह कथन समीचीन नहीं है, इस प्रकार तो दिशा आदिकोंके भी आश्रितपनेका प्रसङ्ग आयेगा। क्योंकि उपलब्ध होनेवाले मूर्तद्रव्योंके होनेपर दिशा ज्ञापक 'यह इससे पूर्व में है' इत्यादि ज्ञान और काल ज्ञापक परत्वापरत्व ( यह इससे पर-ज्येष्ठ है अथवा अपरकनिष्ठ है, इस प्रकारका ) ज्ञान होता है। अतः दिगादिक भी उपचारसे मूर्तद्रव्योंके आश्रित हो जायेंगे। और ऐसी हालत में "नित्यद्रव्योंको छोड़कर छह पदार्थोके आश्रितपना है", यह सिद्धान्त स्थित नहीं रहता है, क्योंकि दिगादिक नित्य द्रव्य भी उपचारसे आश्रित सिद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त, सामान्य भी परमार्थतः अनाश्रित हो जायगा, क्योंकि समवायकी तरह उसके आश्रयका नाश हो जानेपर भी उसका नाश नहीं होता। इस तरह यह आपका समवायका उपचारसे भी आश्रित और स्वतंत्र मानना अपनी स्वीकृत मान्यतासे विरुद्ध है। $ १५५. दूसरे, हम प्रमाणित करेंगे कि समवाय सम्बन्ध नहीं है, 1. मु 'नाशा'। 2. द 'षज्येत' ।
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