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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ तरेतराभावादन्या येन तया विशिष्टस्येतरेतराभावाभिघानमिति चेत्, तौंदानी कार्यस्योत्पाद एव प्रागभावाभावः, ततोऽर्थान्तरस्य तस्या' सम्भवात्कथं तेन कार्यस्य प्रतिबन्धः सिद्ध्येत् ? कार्योत्पादात्प्रागभावाभावस्यार्थान्तरत्वे प्रागेव कार्योत्पादः स्यात्, शश्वदभावाभावे शश्वत्सद्धाववत् । न ह्यन्यदैवाभावस्याभावोऽन्यदैव भावस्य सद्भावः इत्यभावाभावभाव सद्धावयोः कालभेदो युक्तः, सर्वत्राभावाभावस्यैव भाक्स.द्धावप्रसिद्धः भावाभावस्याभावप्रसिद्धिवत् । तथा च कार्यसद्भाव एव तदभावाभावः, कार्याभाव एव च तद्धावस्याभाव इत्यभावविनाशवद्धावविनाशप्रसिद्धेः न भावाभावौ परस्परमतिशयाते यतस्तयोरन्यतरस्यैवैकत्व-नित्यत्वे नानात्वानित्यत्वे वा व्यवतिष्ठते।
कहा जाय । और न इतरेतरव्यावृत्ति भी इतरेतराभावसे भिन्न है, जिससे इतरेतरव्यावृत्तिसे विशिष्ट प्रागभावको इनरेतराभाव कहा जाय । तात्पर्य यह कि प्रध्वंसाभाव और इतरेतराभाव प्रागभावसे भिन्न हैं और सर्वथा स्वतंत्र हैं-वे उसके विशेषण नहीं हैं ?
जैन-इस प्रकार तो यह कहना भो अयुक्त न होगा कि जो इस समय कार्यकी उत्पत्ति है वही प्रागभावाभाव है, उससे भिन्न प्रागभावाभाव नहीं है और तब प्रागभावसे कार्यका प्रतिबन्ध कैसे सिद्ध हो सकता है ? यदि कार्योत्पत्तिसे प्रागभावाभाव भिन्न हो तो कार्योत्पत्ति से पहले भी कार्यकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये, जैसे नित्य अभावाभावके होनेपर नित्य सद्भाव होता है। अन्य समयमें हो अभावाभाव है और अन्य समयमें ही भावसद्भाव है, इस तरह अभावाभाव और भावसद्भावमें कालभेद मानना युक्त नहीं प्रतीत होता। सब जगह अभावाभावको हो भावसद्भावरूप स्वीकार किया गया है और सिद्ध किया गया है, जैसे भावाभावको अभाव सिद्ध किया है। अत एव कार्यका सद्भाव ही कार्याभावाभाव है और कार्यका अभाव हो कार्यसद्भावाभाव है, इस तरह अभावनाशकी तरह भावका भी नाश सिद्ध होता है और इसलिये भाव ( सत्ता ) और अभाव ( असत्ता) में परस्परमें कुछ भी विशेषता नहीं है, जिससे उनमें से भाव (सत्ता) को ही एक और नित्य और अभाव (असत्ता) को नाना तथा अनित्य व्यस्थित किया जाय ।
1. मु पर्थान्तरस्यासम्भवा' । स 'र्थान्तरस्य सद्भावा' । 2. मु 'भाव' इति नास्ति । 3 ६ 'शयेते' ।
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