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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७५-७७ तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानतादात्म्यमृच्छतः । कथञ्चिदीश्वरस्याऽस्ति जिनेशत्वमसंशयम् ॥७५॥ स एव मोक्षमार्गस्य प्रणेता व्यवतिष्ठते । सदेहः सर्वविन्नष्टमोहो धर्मविशेषभाक् ॥७६॥ ज्ञानादन्यस्तु निर्देह सदेहो वा न युज्यते । शिवः कर्मोपदेशस्य सोऽभेत्ता कर्मभूभृताम् ॥७७॥ $ १५२. स्वतन्त्रत्वे हि समवायस्य "षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" [प्रशस्तपा० भा०प०६] इति कथमाबितत्वं स्वयं वैशेषिकैरिष्टम् इति ?; तन्त्रविरोधो दोषः, तस्याश्रितत्वप्रतिपादने स्वतन्त्रत्वविरोधात् । पराश्रितत्वं हि पारतन्त्र्यम्, तेन स्वातन्त्र्यं कथं न प्रतिहन्यते ?
$ १५३. स्यान्मतम्-न परमार्थतः समवायस्याश्रितत्वं धर्मः कथ्यते, हो जाता है तो उसके ज्ञानके समवायसे ज्ञातापनकी कल्पना करना सर्वथा निरर्थक है। अतः उस स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको महेश्वरसे कथंचित अभिन्न मानना चाहिये और उस हालतमें निश्चय हो महेश्वरके जिनेश्वरपना प्राप्त होता है। वही मोक्षमार्गका प्रणेता व्यवस्थित होता है और सशरीरी, सर्वज्ञ, वीतराग तथा धर्मविशेषयोगी सिद्ध होता है। किन्तु ज्ञानसे भिन्न महेश्वर, चाहे वह सशरीरो हो या अशरोरी, मोक्षमार्गके उपदेशका कर्ता नहीं बन सकता है, क्योंकि वह कर्मपर्वतोंका भेत्ता अर्थात् रागादिकर्मोंका नाशकर्ता नहीं है। तात्पर्य यह कि जो वीतरागी और सर्वज्ञ है। साथमें शरीरनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्मके उदयसे विशिष्ट है वह मोक्षमार्गोपदेशक है और वह जिनेश्वर ही है, महेश्वर नहीं।'
$ १५२. वास्तवमें समवाय यदि स्वतंत्र है नो “नित्यद्रव्योंको छोड़कर छह पदार्थों के आश्रितपना है।" [प्रशस्त० भा० पृ०६ ] यह वैशेषिकोंने स्वयं उसमें आश्रितपना क्यों स्वीकार किया ? और इसलिये यह सिद्धान्तविरोध स्पष्ट है । क्योंकि उसमें आश्रितपना स्वीकार करनेपर स्वतन्त्रताका विरोध आता है। कारण, पराश्रितपनेको परतंत्रता कहा गया है और इसलिये समवायमें पराश्रितपना माननेपर स्वतंत्रताका नाश क्यों नहीं हाता ? अर्थात् अवश्य होता है। $ १५३. वैशेषिक-हम आश्रितपना समवायका वास्तविक धर्म नहीं 1. व 'कथञ्चिदस्य स्याज्जिनेश' ।
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