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कारिका ५३, ५४, ५५] ईश्वर-परीक्षा
तदबाऽधास्तीत्यबाधत्वं नाम नेह विशेषणम् । हेतोः सिद्धमनेकान्तो यतोऽनेनेति ये विदुः ॥५३॥ तेषामिहेति विज्ञानाद्विशेषणविशेष्यता । समवायस्य तद्वत्सु तत एव न सिद्ध्यति ॥५४॥ विशेषणविशेष्यत्वसम्बन्धोऽप्यन्यतो यदि ।
स्वसम्बन्धिषु वर्तेत तदा बाधाऽनवस्थितिः ॥५५॥ $ १४६. इह समवायिषु समवाय इति समवायसमवायिनोरयुतसिद्धत्वे समवायस्य पृथगाश्रयाभावात्प्रसिद्ध सतीहेदमिति संवित्तेरबाधितत्वविशेषणस्याभावान्न तया साधनं व्यभिचरेत्, तत्रानवस्थाया बाधिकायाः सद्भावात् । तथा हि-समवायिषु समवायस्य वृत्तिः समवायान्तराद् यदीष्यते,तदा तस्यापि समवायान्तरस्य समवायसमवायिषु स्वसम्बन्धिषु वृत्तिरपरापरसमवायरूपैषितव्या। तथा चापरापरसमवायपरिकल्पनायामनिष्ठितिः स्यात् । तथा एक एव समवायः "तत्त्वं भावेन व्याख्यातम्"
जैन-'इस तरह तो समवायिओंमें समवायका ‘इहेदं' ज्ञानसे विशेषणविशेष्यत्व सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह विशेषणविशेष्यत्व सम्बन्ध भी अपने सम्बन्धियोंमें अन्य विशेषणविशेष्यत्व सम्बन्धसे रहेगा और इस तरह समवायिओं और समवायमें विशेषण-विशेष्यभाव मानने में भी अनवस्था बाधा विद्यमान है'।
१४६. वैशेषिक-'इन समवायिओंमें समवाय है' इस ज्ञानसे समवाय और समवायिओंमें यद्यपि अयुतसिद्धपना प्रसिद्ध है, क्योंकि समवाय पृथक आश्रयमें नहीं रहता है । लेकिन ‘इहेदं' ( इसमें यह ), यह ज्ञान अबाधित नहीं है और इसलिये उसके साथ हेतु व्यभिचारी नहीं है। कारण, उसमें अनवस्थारूप बाधक मौजूद है। वह इस तरहसे है
यदि समवाय समवायिओंमें अन्य समवायसे रहता है तो वह अन्य समवाय भी अपने समवाय-समवायोरूप सम्बन्धियोंमें अन्य तीसरे आदि समवायोंसे रहेगा और उस हालतमें अन्य, अन्य समवायोंकी कल्पना होनेसे अनवस्था दोष आता है । तथा “एक ही समवाय सत्ताकी तरह वास्तविक
1. अ 'यत्' । 2. व 'स्यापृथ'। 3. स 'ष्टितिः'।
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