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कारिका ४८ ]
ईश्वर-परीक्षा
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मत्वमुभयपृथग्गतिमत्वं चेति । तत्र परमाणुविभुद्रव्ययोरन्यतर पृथग्गतिमत्वम्, परमाणोरेव गतिमत्वात्, विभुद्रव्यस्य तु निः क्रियत्वेन गतिमत्वाभावात् । परमाणूनां तु परस्परमुभयपृथग्गतिमत्वम्, उभयोरपि परमाण्वोः पृथकपृथग्गतिमत्वसम्भवात् । न चैतद् द्वितयमपि परस्परं विभुद्रव्यविशेषाणां सम्भवति तथैकद्रव्याश्रयाणां गुणकर्मसामान्यानां च परस्परं पृथगाश्रयवृत्तेरभावात् युतसिद्धिः कथं नु स्यात् ? इति वितर्कयन्तु भवन्तः । तेषां युतसिट्ध्यभावे चायुतसिद्धौ सत्यां समवायोऽन्योन्यं प्रसज्येत । स च नेष्ट:, तेषामाश्रयाश्रयिभावाभावात् ।
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१३८. 'अत्र केचित् विभुद्रव्यविशेषाणामन्योन्यं नित्यसंयोगमाचक्षते तस्य कुतश्चिदजातत्वात् । न ह्ययमन्यतरकर्मजः, यथा स्थाणोः श्येनेन विभूनां च मूर्तेः । नाऽप्युभयकर्मजः, यथा मेषयोर्मल्लयोर्वा ।
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सम्भव नहीं है, क्योंकि वह पृथक् गतिमत्ता दो प्रकारकी है -- एक तो दोमेंसे एकको पृथक् गति और दूसरी दोनोंकी पृथक् गति । इनमें पहलो परमाणु तथा विभुद्रव्यों में पायी जाती है, क्योंकि विभुद्रव्य तो निष्क्रिय होनेसे स्थिर रहते हैं और परमाणु गमनकर उनसे संयोग करते हैं । दूसरी, परमाणु-परमाणु में पायी जाती है, क्योंकि दोनों हो परमाणु जुदे-जुदे गमन कर सकते हैं। सो यह दोनों ही प्रकारकी पृथक् गतिमत्ता विभुद्रव्यविशेषोंके परस्परमें सम्भव नहीं है । इसी प्रकार एकद्रव्यके आश्रय रहनेवाले गुण, कर्म और सामान्य इनके पृथक् आश्रय में रहना नहीं है और इसलिये इनके यूतसिद्धि कैसे बनेगी ? यह विचारिये । और जब इन सबके युतसिद्धि नहीं तो अतसिद्धि प्राप्त होगी और उसके प्राप्त होनेपर इनमें परस्परमें समवायका प्रसंग आयेगा । लेकिन वह आपको इष्ट नहीं है, क्योंकि विभुद्रव्यों में ओर एकद्रव्यवृत्ति गुणादिकों में आश्रय आश्रयीभाव नहीं है ।
$ १३८. वैशेषिक - बात यह है कि हम विभुद्रव्यविशेषोंमें परस्पर नित्य संयोग मानते हैं, क्योंकि वह किसीसे उत्पन्न नहीं होता। न तो वह अन्यतरकर्मजन्य है, जैसे हूँठका श्येन पक्षीके साथ और विभुद्रव्यों का मूर्तद्रव्योंके साथ है । तथा न उभयकर्मजन्य है, जैसे दो भेसाओंका अथवा दो पहलवानोंका होता है । और न संयोगजन्य है, जैसे दो तन्तुजन्य दो
1. द 'सम्भवति तथैकद्रव्याश्रयाणां' इति पाठो नास्ति ।
2. दस 'अत्र विभु' ।
3. मु 'मासंचक्षते' इति ।
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