________________
१५२
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४८ ६ १४०. यदि पुनरेतल्लक्षणद्वयव्यतिक्रमेण संयोगहेतुयुतसिद्धिरिति लक्षणान्तरमुररीक्रियते, तदा कुण्डवदरादिषु परमाण्वाकाशादिषु परमाणुष्वात्ममनस्सु विभुद्रव्येषु च परस्परं युतसिद्धर्भावाल्लक्षणस्याव्याप्त्यतिव्याप्त्यसम्भवदोषपरिहारेऽपि कर्मापि युतसिद्धि प्राप्नोति, तस्यापि सं. योगहेतुत्वाददृष्टेश्वरकालादेरिवेति दुःशक्याऽतिव्याप्तिः परिहर्तुम् । संयोगस्यैव हेतुरित्यवधारणाददोषोऽयम, इति चेत्, न; एवमपि हिमवद्विन्ध्यादीनां युतसिद्धेः संयोगाहेतोरपि प्रसिद्धे लक्षणस्याव्याप्तिप्रसङ्गात् । हेतुरेव संयोगस्येत्यवधारणादयमपि न दोष इति चेत्, न; एवमपि संयोगहेतो::
$ १४०. वैशेषिक-हम युतसिद्धिके इन दोनों लक्षणोंके अलावा 'संयोगका जो कारण है वह युतसिद्धि है, यह युतसिद्धिका अन्य तोसरा लक्षण मानते हैं, अतः उपर्युक्त दोष नहीं है ? ।
जैन-आपका यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कुण्ड तथा वेर आदिकोंमें, परमाणु तथा आकाशादिकोंमें, परमाणु-परमाणुओंमें, आत्मा तथा मनोंमें और विभद्रव्योंमें परस्पर यतसिद्धि होनेसे इनमें युतसिद्धिलक्षणकी अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषोंका परिहार हो जानेपर भी कर्म भी युतसिद्धिको प्राप्त होता है । कारण, वह भी अदृष्ट, ईश्वर और कालादिककी तरह संयोगका कारण होता है और इसलिये कर्ममें उक्त युतसिद्धिलक्षगकी अतिव्याप्तिका परिहार दुःशक्य है ।
वैशेषिक-'संयोगका हो जो कारण है वह युतसिद्धि है' इस प्रकार अवधारण कर देनेसे उक्त अतिव्याप्ति नहीं है ?
जैन-यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि इस प्रकारसे भी हिमवान् और विन्ध्याचल आदिकोंमें संयोगका कारण न होनेवाली युतसिद्धि प्रसिद्ध होनेसे उनमें युतसिद्धिका उक्त लक्षण अव्याप्त होता है।
वैशेषिक-'जो संयोगका कारण ही है वह युतसिद्धि है' इस प्रकार अवधारण करनेसे यह भी दोष ( अव्याप्ति ) नहीं है ? __ जैन-यह मान्यता भी आपको ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकारसे भी संयोगका कारण ही होनेवाले कर्मके भी युतसिद्धिका प्रसङ्ग आता है। तात्पर्य यह कि कर्म संयोगका कारण हो है-कार्य आदि नहीं है, अतः युत
1. द 'कर्म' । 2. द 'द्वैतल्लक्षणस्याप्याव्या-' 3. स ‘संयोगाहेतोः', मु 'संयोगहेतोयु'तसिद्धः प्रस-' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org