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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४८ न च संयोगजः यथा द्वितन्तुकवीरणयोः शरीराकाशयो । स्वावयवसंयोगपूर्वको शवयविनः केनचि संयोगः संयोगजःप्रसिद्धः । न चाकाशादीनामवयवाः सन्ति, निरवयवत्वात् । ततो न तत्संयोगपूर्वकः परस्परं संयोगो यतः संयोगजः स्यात् । प्राप्तिस्तु तेषां सर्वदाऽस्तीति तल्लक्षणः संयोगः अज एवाभ्युपगन्तव्यः । तत्सिद्धेश्च यतसिद्धिस्तेषां प्रतिज्ञातव्या, यतसिद्धानामेव संयोगस्य निश्चयात् । न चैवं ये ये युतसिद्धास्तेषां [संयोगः] साहिमवदादीनामपि संयोगः प्रसज्यते, तथाव्याप्तरेभावात् । संयोगेन हि युतसिद्धत्वं व्याप्तं न युतसिद्धत्वेन संयोगः। ततो यत्र यत्र संयोगस्तेषां तत्र तत्र युतसिद्धिरित्यनुमोयते, कुण्डवदरादिवत् । एवं चैकद्रव्याश्रयाणां गुणादीनां संयोगस्यासम्भवान्न युतसिद्धिः, तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रयत्वात् तदभावान्न युतसिद्धिः। नाऽप्ययुतसिद्धिरस्तीति समवायः प्राप्नुयात्. तस्येहेदंप्रत्ययलिङ्गत्वादाधार्याधारभूतपदार्थविषयत्वाच्च । न चैते परस्परमाधार्याधारवीरणोंका अथवा शरीर और आकाशका होता है। जो अपने अवयवोंके संयोगपूर्वक अवयवीका किसी दूसरे द्रव्यके साथ संयोग होता है वह संयोगजसंयोग कहलाता है । सो आकाशादिक विभुद्रव्योंके अवयव नहीं हैं, क्योंकि वे निरवयव हैं। अतः उनके अवयवसंयोगपूर्वक परस्परमें संयोग नहीं है, जिससे उनके संयोगजसंयोग कहा जाता है। किन्तु प्राप्ति उनकी हमेशा है, इसलिये प्राप्तिलक्षण संयोग नित्य ही स्वीकार करना चाहिये । और जब वह ( संयोग ) सिद्ध हो जाता तो युतसिद्धि मान लेना चाहिये, क्योंकि युतसिद्धोंके ही निश्चयसे संयोग होता है। इससे यह अर्थ न लगाना चाहिये कि जो जो युतसिद्ध हैं उन सबके-सह्य और हिमवान् आदिकोंके भी-संयोग है, क्योंकि वैसी व्याप्ति (अविनाभाव ) नहीं है। वास्तवमें संयोगके साथ युतसिद्धिकी व्याप्ति है, यतसिद्धिके साथ संयोगकी नहीं। अतः इस प्रकारसे अनुमान होना चाहिये कि 'जहाँ जहाँ संयोग होता है वहाँ वहाँ उनके युतसिद्धि होती है ।' जैसे कुण्ड और वेर आदिकोंमें संयोगपूर्वक युतसिद्धि पायी जाती है। इसी तरह एकद्रव्यमें रहनेवाले गुणादिकोंमें संयोग न होनेसे युतसिद्धि नहीं है। कारण, संयोग गुण है और गुण द्रव्यके ही आश्रय रहता है । अतः उनके संयोगका अभाव होनेसे युतसिद्धि नहीं है । तथा अयुतसिद्धि भी नहीं है, जिससे समवाय प्राप्त हो, क्योंकि समवाय 'इहेदं' प्रत्ययसे सिद्ध होता है और आधाराधेयभूत पदार्थों--
1. म 'चित्संयोगः' । स 'चित्संयोगजः' । 2. मुद 'क्षणसंयोगः' ।
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