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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३९ १२६. ननु च सर्व ज्ञेयमेव जानन् सर्वज्ञः कथ्यते न पुनर्ज्ञानं तस्याज्ञेयत्वात् । न च तदज्ञाते ज्ञेयपरिच्छित्तिनं भवेत् 'चक्षुरपरिज्ञाने तत्परिच्छेद्यरूपापरिज्ञानप्रसङ्गात् । कारणापरिज्ञानेऽपि विषयपरिच्छित्तेरविरोधात्; इत्यपि नानुमन्तव्यम्; सर्वग्रहणेन ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृ-ज्ञप्तिलक्षणस्य तत्त्वचतुष्टयस्य प्रतिज्ञानात। "प्रमाणं प्रमाता प्रमेयं प्रमितिरिति चतुसृषु चैवंविधासु तत्त्वं परिसमाप्यते” [ वात्स्यायनन्यायभाष्य पृष्ठ २] इति वचनात् । तदन्यतमापरिज्ञानेऽपि सफलतत्त्वपरिज्ञानानुप. पत्तेः कुतः सर्वज्ञतेश्वरस्य सिद्ध्येत् ? ज्ञानान्तरेण स्वज्ञानस्यापि वेदनान्नास्यासर्वज्ञता, इति चेत, तहि तदपि ज्ञानान्तरं परेण ज्ञानेन ज्ञातव्य
६ १२६. वैशेषिक-समस्त ज्ञेय पदार्थोंको ही जाननेवाला सर्वज्ञ कहा जाता है न कि ज्ञानको, क्योंकि वह ज्ञेय नहीं है-यह ज्ञान है और ज्ञेय, ज्ञानसे भिन्न ही माना गया है और इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञानका न होनेपर ज्ञेयका ज्ञान नहीं हो सकेगा, अन्यथा चक्षुरिन्द्रियका परिज्ञान न होनेपर उससे जाना जानेवाले रूपका परिज्ञान भी नहीं हो सकेगा। किन्तु यह सर्व प्रसिद्ध कि करणका ज्ञान न होनेपर भी विषयका ज्ञान होता है। अतः समस्त ज्ञेय पदार्थोंके ही ज्ञायकको सर्वज्ञ मानना चाहिये, ज्ञानके ज्ञायकको नहीं। और इसलिये महेश्वरज्ञानके असर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती ? ___ जैन-यह मान्यता आपकी उचित नहीं है, क्योंकि 'सर्वज्ञ' पद में निहित 'सर्व' शब्दके ग्रहणद्वारा ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञप्तिरूप चार तत्त्वोंको स्वीकार किया गया है। आपके ही प्रसिद्ध आचार्य न्यायभाष्यकार वात्स्यायनने भी कहा है कि 'प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमितिइन चार प्रकारोंमें तत्त्व पूर्णतः समाप्त है अर्थात् इन चारोंको ही तत्व कहते हैं।" [ न्यायभाष्य पृ० २] । अतः यदि इनमेंसे एकका भी ज्ञान न हो तो समस्त तत्वोंका ज्ञान नहीं बन सकता है। अतः महेश्वरको अपने ज्ञानका ज्ञान न होनेपर उसके सर्वज्ञता कैसे सिद्ध हो सकती है ? अगर कहा जाय कि महेश्वर अन्यज्ञानसे अपने ज्ञानको भी जानता है और इस___ 1. द 'चक्षुरज्ञाने' ।
2. द 'न मन्तव्यम्'। १. 'तत्र यस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता, स येनाऽर्थं प्रमिणोति तत्प्र
माणम्, योऽर्थः प्रमीयते तत्प्रमेयम्, यदर्थविज्ञानं सा प्रमितिः, चतु सृषु चैवंविधास्वर्थतत्वं परिसमाप्यते'-वात्स्या० न्यायभा० पृ० २।
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