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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका कारिका ४२ इह कुण्डे दधीत्यादिविज्ञानेनास्तविद्विषा ।
साध्ये सम्बन्धमात्रे तु परेषां सिद्धसाधनम् ॥४२॥ ६ १२८. यदि स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानमीश्वरस्याभ्यनुज्ञायते, तस्यास्मदादिविशिष्टत्वात् , तदा तदीश्वरान्निमभ्युपगन्तव्यम, अभेदे सिद्धान्तविरोधात्। तथा चाकाशादेरिव कथं तस्येति व्यपदेश्यमिति पर्यनुयुज्महे। [महेश्वरतज्ज्ञानयोः सम्बन्धकारकस्य समवायस्य पूर्वपक्षपुरस्सरं निरसनम् ]
$ १२९. स्यान्मतम्-भिन्नमपि महेश्वरात्तस्येति व्यपदिश्यते, तत्र
'यदि कहा जाय कि समवाय सम्बन्धसे उक्त निर्देश बन जायगा अर्थात् महेश्वरज्ञानका महेश्वरके साथ समवाय सम्बन्ध है, आकाशादिकके साथ नहीं, अतः समवाय सम्बन्धसे 'महेश्वरज्ञान महेश्वरका है' यह निर्देश उपपन्न हो जायगा, तो वह समवाय सम्बन्ध भी दोनोंसे भिन्न माना जायगा और उस हालत में उसका भी ज्ञान कैसे हो सकेगा? अगर कहें कि 'इसमें यह है' इस प्रकारके अबाधित ज्ञानसे उसका ज्ञान हो जाता है, तो वह ज्ञान 'इस कुण्डमें दही है' इस प्रकारके संयोगनिमित्तक अबाधित ज्ञानके साथ व्यभिचरित है। इस कुण्डमें दही है' यह ज्ञान भी 'इसमें यह है' इस रूप है और वह अबाधित भी है। लेकिन वह समवायसम्बन्धनिमित्तक नहीं है-संयोगसम्बन्धनिमित्तक है। अतः उक्त ज्ञान इसके साथ व्यभिचारी है। अगर कहा जाय कि सम्बन्धसामान्य यहाँ साध्य है और इसलिये उक्त दोष नहीं है, तो जैनोंके लिये उसमें सिद्धसाधन है।'
$ १२८. यदि कहें कि महेश्वरके ज्ञानको हम स्वार्थव्यवसायात्मक मानते हैं क्योंकि वह हम लोगोंसे विशिष्ट है, तो उसे महेश्वरसे भिन्न स्वीकार करना चाहिये, कारण, अभिन्न माननेमें सिद्धान्तविरोध आता है-वैशेषिक मतमें महेश्वरज्ञानको महेश्वरसे भिन्न माना गया है, अभिन्न नहीं। और महेश्वरसे महेश्वरज्ञानको भिन्न स्वीकार करनेपर 'वह उसका है' यह व्यपदेश आकाशादिककी तरह कैसे बन सकेगा, यह हमारा आपसे प्रश्न है। तात्पर्य यह कि महेश्वरज्ञान जब महेश्वरसे सर्वथा भिन्न है तब 'वह उसका है' अन्यका नहीं, यह व्यवस्था नहीं बन सकती है।
१२९. वैशेषिक-हमारा आशय यह है कि महेश्वरज्ञान महेश्वरसे भिन्न होता हुआ भी 'उसका है' यह व्यपदेश बन जाता है क्योंकि महे
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