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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३६ विषयत्वान्न धर्माधर्मपरमाणुकालाद्यतीन्द्रियकारकविशेषसाक्षात्करणसमर्थानि । न च तदसाक्षात्करणे 'तत्प्रयोजकत्वं तेषामवतिष्ठते। तदप्रयोजकत्वे च न तदधिष्ठितानामेव धर्मादीनां तन्वादिकार्यजन्मनि प्रवृत्तिः सिद्ध्येत् । ततोऽतीन्द्रियार्थसाक्षात्कारिणा ज्ञानेनाधिष्ठितानामेव स्वकार्ये व्यापारेण भवितव्यम् । तच्च महेश्वरज्ञानम्, इति; तदप्यनालोचितयुक्तिकम; सकलातीन्द्रियार्थसाक्षात्कारिण एव ज्ञानस्य कारकाधिष्ठायकत्वेन प्रसिद्धस्य दृष्टान्ततयोपादीयमानस्यासम्भवात्तदधिष्ठितत्वसाधने हेतोरनन्वयत्व-प्रसक्तेः। न हि कुम्भकारादेः कुम्भाधुत्पत्तौ तत्कारकसाक्षात्कारिज्ञानं विद्यते, दण्डचक्रादिदृष्टकारकसन्दोहस्य तेन साक्षात्क: रणेऽपि तन्निमित्तादृष्ट विशेषकालादेरसाक्षात्करणात्। करनेसे धर्म, अधर्म, परमाणु, काल आदिक अतीन्द्रिय कारकविशेषोंको वे प्रत्यक्षरूपसे नहीं जान सकते हैं और उनके न जाननेपर वे ( ज्ञान ) उनके (कारकोंके ) प्रयोजक (प्रयोक्ता) एवं प्रवर्तक नहीं हो सकते हैं तथा प्रयोजक एवं प्रवर्तक न होनेपर उनसे ( ज्ञानोंसे ) अधिष्ठित धर्मादिकोंकी शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें प्रवृत्ति नहीं बन सकती है। अतः अतोन्द्रिय पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाले ज्ञानद्वारा अधिष्ठित ही धर्मादिकोंकी शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें प्रवृत्ति होना चाहिये और वह ज्ञान महेश्वरज्ञान है-वही अतोन्द्रिय पदार्थोंका साक्षात्कर्ता है ? __जैन-आपका यह मत भी विचारपूर्ण नहीं है, क्योंकि उसमें ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं मिलता, जो समस्त अतीन्द्रिय पदार्थोंका साक्षात्कारी हो और कारकोंका अधिष्ठाता प्रसिद्ध हो, और इसलिए उपयुक्त धर्मादिक कारकोंमें महेश्वरज्ञानद्वारा अधिष्ठितपना सिद्ध करनेमें हेतुके अनन्वयपनेका दोष आता है-अन्वय दृष्टान्तके न मिलनेसे हेतुके अन्वयव्याप्तिका अभाव प्रसक्त होता है। प्रकट है कि जो कुम्हार आदि घड़े वगैरहकी उत्पत्तिमें कारण माने जाते हैं उनके ज्ञानको घड़े आदिके समस्त कारकोंका साक्षात्कर्ता कोई स्वीकार नहीं करता। केवल वह दण्ड, चक्र आदि कुछ दृष्टिकारकोंको जानता है, लेकिन फिर भी दूसरे अतीन्द्रिय अदृष्टविशेष (पुण्य-पापादि ) और काल वगैरहको वह साक्षात्कार नहीं करता।
1. मु ततः प्रयोजकत्वं' । 2. मु 'रन्वयत्व'। 3. मु 'कार'।
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