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कारिका ३६] ईश्वर-परीक्षा
१२९ $ १२३. ननु लिङ्गविशेषात्तत्परिच्छित्तिनिमित्तस्य लैङ्गिकस्य ज्ञानस्य सद्भावात, तथा स्वादृष्टविशेषाः कुम्भकारादयः कुम्भादिकार्याणि कुर्वन्ति नेतरे, तेषां तथाविधादृष्टविशेषाभावादित्यागमज्ञानस्यापि तत्सरिच्छेदनिबन्धनस्य सद्भावात सिद्धमेव कुम्भकारादिज्ञानस्य कुम्भादिकारकपरिच्छेदकत्वं तत्प्रयोक्तृत्वेन तदधिष्ठाननिबन्धनत्वम्, ततस्तस्य दृष्टान्ततयोपादान्न तोरनन्वयत्वा' पत्तिरिति चेत, तहि सर्वसंसारिणां यथास्वं तन्वादिकार्यजन्मनि प्रत्यक्षतोऽनुमानादागमाच्च तन्निमित्तदृष्टादृष्टकारकविषयपरिज्ञानसिद्धः कथमज्ञत्वम् ? येनात्मनः सुखदुःखोत्पत्तौ हेतुत्वं न भवेत् । यतश्च 'सर्वसंसारीश्वरप्रेरित एव स्वर्ग वा श्वभ्रं वा गच्छेत्' इति समञ्जसमालक्ष्येत । ततः किमीश्वरपरि
5 १२३. वैशेषिक-उल्लिखित कारकोंको ज्ञप्तिमें कारणीभूत लिङ्गजन्य लैङ्गिकअनुमान-ज्ञान कुम्हार आदिको रहता है, इसलिए कुम्हार आदिक अपने अदृष्टविशेषको लेकर घटादिक कार्योको करते हैं, उनसे जो भिन्न हैं जिन्हें न तो उन घटादिकके कारकोंका ज्ञान है और न वैसा उनका अदृष्टविशेष है-वे उन घटादि कार्यों को नहीं करते हैं । इसके अलावा, उन्हें कितने ही कारकोंका आगमज्ञान ( सुनने आदिसे होनेवाला ज्ञान ) भी होता है। अतः कुम्हार आदिका ज्ञान घटादिकके कारकोंका परिच्छेदक स्पष्टतः सिद्ध है और इसलिए वह उनका प्रयोक्ता होनेसे कारकोंका अधिष्ठाता बन जाता है । अतएव उसको यहाँ दृष्टान्तरूपसे ग्रहण किया है । ऐसी दशामें हमारे हेतुमें अनन्वयपनेका दोष नहीं आता?
जैन-इस प्रकार तो सभी संसारी जीवोंको अपने-अपने शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें प्रत्यक्षसे, अनुमानसे और आगमसे यथायोग्य उन शरीरादिकार्योंके कारणीभूत दृष्ट ( दिखने में आनेवाले ) और अदृष्ट ( दिखने में न आनेवाले ) कारकोंका ज्ञान विद्यमान है तब उन्हें अज्ञ कसे कहा जा सकता है ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता है । जिससे कि वे अपने सुख-दुःखकी उत्पत्तिमें स्वयं कारण न हों और जिससे सभी संसारी ईश्वरद्वारा प्रेरित होकर ही स्वर्ग और नरकको जावें, यह युक्त समझा जाता।
1. मु 'रन्वयत्वा'। 2. स 'मतत्सत्वम् । 3. मु स प 'लक्ष्यते' । व 'लक्षते' ।
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