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कारिका ३६] ईश्वर-परीक्षा मेवोपक्षीणशक्तिकत्वात् । ततो निरवद्यमिदं साधनमिति केचित्'; तेऽपि न हेतुसामर्थ्यवेदिनः; अचेतनत्वस्य हेतोः संसारिजनज्ञानेषु स्वयं चेतनेब्वभावात्पक्षाव्यापकत्वात्।
११९. ननु च न चेतनत्वप्रतिषेधोऽचेतनत्वम्, कि हि ? चेतनासमवायप्रतिषेधः । स च ज्ञानेष्वस्ति, तेषां स्वयं चेतनत्वात्, तत्रापरचेतनासमवायाभावात् । ततोऽचेतनत्वं साधनं न पक्षाध्यापकं ज्ञानेष्वपि सद्भावादिति न मन्तव्यम्, संसार्यात्मसु चेतनासमवायात् चेतनत्वप्रसिद्धेरचेतनत्वस्य हेतोरभावात् पक्षव्यापकत्वस्य तदवस्थत्वात् ।
१२०. यदि तु संसार्यात्मनां स्वतोऽचेतनत्वादचेतनत्वस्य हेतोस्तत्र अन्य, अन्य, महेश्वरोंकी अपेक्षामें हो उसकी शक्ति क्षीण हो जानेसे शरीरादिकार्योंकी उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती। अतः हमारा 'अचेतननत्व' हेतु पूर्णतः निर्दोष है ? ___जैन-आप हेतुके सामर्थ्य-योग्यता अथवा यथार्थताको-कि कौन निर्दोष है और कौन नहीं, नहीं जानते, क्योंकि संसारी जीवोंके ज्ञानोंमें 'अचेतनपना' हेतु नहीं रहता है। कारण, वे स्वयं चेतन हैं लेकिन वे पक्षान्तर्गत हैं । अतः आपका यह 'अचेतनपना' हेतु सम्पूर्ण पक्षमें न रहनेसे पक्षाव्यापक अर्थात् भागासिद्ध है । तब उसे आप निर्दोष कैसे कह सकते हैं ? वह तो स्पष्टतः सदोष है।
११९. वैशेषिक-यहाँ चेतनपनाका अभावरूप अचेतनपना विवक्षित नहीं है, किन्तु चेतनाके समवायका अभावरूप अचेतनपना विवक्षित है और वह संसारी जीवोंके ज्ञानोंमें है क्योंकि वे स्वयं चेतन हैं-चेतनाके समवायसे चेतन नहीं हैं, कारण उनमें अन्य चेतनाका समवाय सम्भव नहीं है । अतः 'अचेतनपना' हेतु पक्षाव्यापक नहीं है, वह संसारीजोवोंके ज्ञानोंमें भी विद्यमान है ? - जैन-यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । कारण, संसारी आत्माओंमें चेतनाके समवायसे चेतनपना प्रसिद्ध है और इसलिये उनमें 'अचेतनपना' हेतु नहीं रहता है। अतः वह पूर्ववत् संसारी आत्माओंमें पक्षाव्यापक है हो । $ १२०. वैशेषिक-हमारा अभिप्राय यह है कि संसारी आत्माएँ
1.मु स प 'कैश्चित्। 2. व हेतु' नास्ति । 3. 'तु' नास्ति।
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