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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ३६ विशेषवशात्प्रवृत्तावपि समानोऽयं दोष इति वक्तुं शक्यः, तत्क्षीरोपभोक्तृजनादृष्टसहकारिणामपि चेतनेनाधिष्ठितस्य प्रवृत्तिघटनात्सहकारिणामप्रतिनियमात् । तदपि कैश्चिदुच्यते महेश्वरोऽपि चेतनान्तरेणाधिष्ठितः प्रवर्तते, चेतनत्वाद्विशिष्टकर्मकरादिवदिति; तदपि न सत्यम्; तदधिष्ठाय कस्यैव महेश्वरत्वात् । यो ह्यन्त्योऽधिष्ठाता स्वतन्त्रः स महेश्वरस्ततोऽन्यस्य महेश्वरत्वानुपपत्तेः । न चान्त्योऽधिष्ठाता न व्यवतिष्ठते तन्वादिकार्याणामुत्पत्तिव्यवस्थाना भावप्रसङ्गात्परापरमहेश्वरप्रतीक्षाया
पर गायकी जो विशिष्ट सेवा करते हैं उनके पोषणादिके लिये उनसे अधिष्ठित होकर गोदुग्ध प्रवृत्त होता है और इसलिये गायके बच्चेके मर जानेके बाद भी गोदुग्ध चेतन गोसेवकोंसे अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त होता हैअनधिष्ठित कभी भी प्रवृत नहीं होता। यदि कहा जाय, कि बच्चेके अदृष्टविशेषसे प्रवृत्ति माननेमें भी यह दोष बराबर है अर्थात् बच्चेकी जीवितावस्थामें गोदुग्धकी प्रवृत्तिमें गोसेवकका ही अधिष्ठान मानना चाहिये-अदृष्टविशेषसे सहकृत चेतन गोवत्सको उसकी प्रवृत्तिमें अधिष्ठाता मानना उचित नहीं, तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि गायके दूधको पीनेवाले जितने भी व्यक्ति हैं उन सबके अदृष्टविशेषसे भी विशिष्ट चेतनद्वारा अधिष्ठित होकर उसको प्रवृत्ति बनती है, सहकारियोंकी कोई गिनती नहीं है - उनका कोई प्रतिनियम नहीं है वे अनेक होते हैं ।
यदि कहा जाय कि 'महेश्वर भी अन्य चेतनद्वारा अधिष्ठित होकर प्रवृत्त होता है। क्योंकि चेतन है। जैसे विशिष्ट कर्मचारी आदि' तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि उन सबका सर्वोच्च अधिष्ठाता ही महेश्वर है। वास्तव में जो अन्तिम अधिष्ठाता है और जो पूरा स्वतन्त्र है--जिसका दुसरा अधिष्ठाता नहीं है वह महेश्वर है उससे अन्यके महेश्वरपना नहीं है। और यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि कोई अन्तिम अधिष्ठाता व्यवस्थित नहीं होता, क्योंकि शरीरादि कार्योंकी उत्पत्तिकी जो व्यवस्था है-प्रत्येक कार्य व्यस्थित ढंगसे पैदा होता है वह अधिष्ठाताके अभावमें सम्भव नहीं है । और यदि महेश्वर भी अन्य महेश्वरको अपेक्षा करे तो
1. म 'चेतनान्तराधिष्ठितः'। 2. मु 'प'। 3. मु 'स्थानामभाव'।
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