________________
९६
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका २७० तत्त्वस्य इव स्वसत्तानतिक्रमाद्वस्तुत्वाविरोधात्, सामान्यादेरपि स्वरूपसत्त्वस्य वस्तुलक्षणस्याभ्युपगमान्न किञ्चिद्वस्तु सत्तालक्षणं व्यभिचरतीति कापिलानां दर्शनं न पुनर्वैशेषिकाणां ईश्वरज्ञानस्योदासीनस्य कल्पने तत्कल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् । कार्यकारिणैव तेन भवितव्यम् । यच्च कार्यकारि तत्सातिशयमेव युक्तम् । न चैवं परिणामिनित्यता ज्ञानस्य सांख्यपरिकल्पितप्रधानवत्प्रसज्यते, तदतिशयानां क्रमभुवां ततो भिन्नत्वात् । तदभेदेऽतिशयानामिवेश्वरज्ञानस्यापि नाशोत्पादप्रसङ्गात् । ईश्वरज्ञानवद्वा तदतिशयानामनुत्पादविनाशधर्मकत्वप्रसङ्गात् । तदेवमीश्वरज्ञानं क्रमेणानेकातिशयसम्पाते क्रमवदेव । क्रमवतश्चेश्वरज्ञानात्कार्याणां क्रमो न विरुदध्यत एव, सर्वथाऽप्यक्रमादेव हेतोः कार्यक्रमविरोधसिद्धेः । एतेन सांख्यैः
लक्षण है । अतएव अभाव भी जो कि अन्य वस्तुस्वरूप है, पुरुषको तरह अपने अस्तित्वका उल्लंघन न करनेसे वस्तु है। इसी प्रकार सामान्यादिकमें भी स्वरूपसत्वरूप वस्तुलक्षण हमने माना है। इसलिये कोई भी वस्तु सत्तालक्षणको व्यभिचारी नहीं है अर्थात् सभी वस्तुओंमें सत्तालक्षण पाया जाता है, इस प्रकार सांख्योंका मत है । लेकिन वैशेषिक ऐसा नहीं मानते हैं। उनकी मान्यता यह है कि यदि ईश्वरज्ञानको उदासीन माना जाय तो उसकी कल्पना करना ही व्यर्थ है क्योंकि उसको कार्य करनेवाला ही होना चाहिये और जो कार्य करनेवाला है वह सातिशय-परिणामी ही मानना योग्य है-उचित है। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि सांख्योंके प्रधानकी तरह ईश्वरका ज्ञान परिणामि-नित्य है क्योंकि वे क्रमभावी अतिशय (परिणाम ) ईश्वरज्ञानसे भिन्न हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार सांख्योंका प्रधान परिणामयुक्त होकर स्वयं विकृतिको भी प्राप्त होता है उस प्रकारका ईश्वरज्ञान नहीं है। यद्यपि वह परिणामि-नित्य है लेकिन वे परिणाम उससे भिन्न हैं । अतः वह स्वयं विकृत ( उत्पाद और विनाशको प्राप्त ) नहीं होता। हाँ, ईश्वरज्ञानसे उन अतिशयों-परिणामोंको अभिन्न माननेपर अतिशयोंकी तरह ईश्वरज्ञान भी उत्पाद और विनाशशील हो जायगा । अथवा ईश्वरज्ञानकी तरह उसके अतिशय अनुत्पाद और अविनाश स्वभाववाले हो जायेंगे, क्योंकि अभेदमें एक दूसरेरूप परिणत हो जाता है। इस प्रकार ईश्वरका ज्ञान क्रमसे अनेक अतिशयोंको प्राप्त होनेसे क्रमवान् ही है अर्थात् उसके क्रम उपपन्न हो जाता है और क्रमवान् ईश्वरज्ञानसे कार्योंका क्रम विरुद्ध नहीं है-वह भी बन जाता है । सर्वथा अक्रम हेतु (कारण ) से हो कार्योंके क्रमका विरोध है-वह नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org